जमशेदपुर–वीमेंस काॅलेज में प्रेमचंद : समय, समाज और संस्कृति विषय पर राष्ट्रीय वेबिनार संपन्न

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जमशेदपुर ।
वीमेंस कॉलेज में 31 जुलाई को पूर्वाह्न 11.30 बजे से आयोजित प्रेमचंद : समय, समाज और संस्कृति विषयक एक दिवसीय राष्ट्रीय वेबिनार सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। यह वेबिनार गूगल मीट ऐप्लीकेशन पर काॅलेज के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित कराया गया। स्वागत व उद्घाटन वक्तव्य देते हुए प्राचार्या एवं वेबिनार की प्रधान संरक्षक व मुख्य आयोजक प्रो. (डॉ.) शुक्ला महांती ने कहा कि प्रेमचंद इकलौते ऐसे लेखक रहे हैं जिन्हें हिन्दी के अलावा भी हर तीसरे-चौथे व्यक्ति ने पढ़ा है। यह अनूठी बात है और इसकी एक खास वजह यह है कि प्रेमचंद की रचनात्मकता में जो सादगी का सौंदर्य है वह पाठक को आकर्षित करता है। उसे सहयात्री बना लेता है। उनकी कई कहानियों को पढ़ते हुए यह महसूस होता है कि एक पाठक के रूप में आपका सौंदर्यबोध और सामाजिक विवेक दोनों पहले से अधिक स्तरीय हो उठा है। उन्होंने मुख्य वक्ता जेएनयू के भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष व हिन्दी के प्रोफेसर डॉ. ओमप्रकाश सिंह, विशिष्ट वक्ता दिल्ली विश्वविद्यालय की हिन्दी प्रोफेसर डॉ. सुधा सिंह तथा चक्रधरपुर से जुड़े रंगकर्मी व साहित्यकार दिनकर शर्मा का स्वागत किया।

प्रेमचंद स्त्री की स्वायत्त अस्मिता को कथाओं में गढ़ते हैं : प्रोफेसर सुधा सिंह

‘प्रेमचंद और स्त्री’ विषय पर बोलते हुए प्रो. सुधा सिंह ने कहा कि प्रेमचंद का पाठ स्त्री संदर्भों के साथ होना चाहिए। गोदान को किसान कथा, ग्राम कथा आदि दृष्टियों से देखा गया लेकिन उसे रूपा, धनिया, झुनिया, सिलिया, गोविंदी, मालती जैसी स्त्रियों के परिप्रेक्ष्य में देखने पर सही तस्वीर मिलेगी। प्रेमचंद की कथा में आई जालपा, सुखदा, नैना आदि पात्र स्त्री और राष्ट्रीयता का क्रिटिक तैयार करती दिखती हैं। ये स्त्रियाँ पिता और पति के दो पितृसत्तात्मक मुहावरों के बीच अपनी स्वायत्त पहचान निर्मित करती हैं। विवाह संस्था भी प्रेमचंद के यहाँ रेत और पानी के आरोपित मेल के रूप में आलोचित हुई है। प्रेमचंद मानते हैं कि जहाँ स्त्री व पुरुष दोनों के ही विचारों के लिए एक जैसा स्पेस हो, वहाँ ही घर होता है। इसलिए प्रेमचंद ऐसी स्त्री चरित्र गढ़ते हैं जो घर और बाहर दोनों जगह पितृसत्तात्मक आचार संहिता को नकारती हैं। प्रसव पीड़ा में कराहती, तड़पती कफन की बुधिया की मौत भी वोकल है। वह बिना कुछ कहे भी पुरुष निर्मित व्यवस्था के खिलाफ सबकुछ कह जाती है।

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बहुरुपिया शोषण तंत्र के खिलाफ थी प्रेमचंद की रचनात्मकता : प्रोफेसर ओमप्रकाश सिंह

वेबिनार के केन्द्रीय विषय ‘प्रेमचंद: समय, समाज और संस्कृति’ पर बोलते हुए मुख्य वक्ता जेएनयू के भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष प्रोफेसर ओमप्रकाश सिंह ने हिन्दी नवजागरण की वैचारिक भूमि और प्रेमचंद के लेखन के प्रस्थान बिंदुओं को जोड़ा। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद अपने समय के इकलौते हिन्दू लेखक थे जिन्होंने पूरे साहस के साथ सांप्रदायिकता के जहर और साझी संस्कृति की अहमियत पर जमकर लिखा। ब्राह्मणवादी संरचना की कड़ी खबर ली तो सांप्रदायिक रिचुअल के खुलेआम प्रदर्शन से भड़कने वाले दंगों की आलोचना की। महाजनी सभ्यता पर लिखा गया उनका लेख आज के सहचर पूंजीवादी समय पर सटीक बैठता है। क्योंकि शोषणकर्ता अब कोई एक नहीं है बल्कि राजनीतिक सत्ता, व्यापारिक प्रभु वर्ग और बचे हुए सामंती संदर्भ मिलकर शोषण में शामिल हैं। प्रेमचंद ने इनके खिलाफ एक समानांतर प्रतिरोध तंत्र अपनी रचनाओं में तैयार करने की कोशिश की। मजदूर, किसान, स्त्री, हरिजन जैसी उपेक्षित सामाजिक सांस्कृतिक अस्मिताओं को एकजुट करने का प्रयास किया। स्वाधीनता संग्राम को अंजाम तक पहुंचाने के लिए इस वर्ग अंतराल को भरना जरूरी था। होलिस्टिक दृष्टि से देखने पर प्रेमचंद हिन्दी के ही नहीं बल्कि वृहत्तर भारतीय जातीयता के प्रतिबद्ध रचनाकार दिखाई पड़ते हैं। वे मरजाद और मनुष्यता की बुनियादी संरचनाओं के बीच महीन संतुलन करने वाले पहले भारतीय हिन्दी लेखक हैं।

कार्यक्रम में चक्रधरपुर से जुड़े रंगकर्मी व साहित्यकार दिनकर शर्मा ने प्रेमचंद की कहानी बड़े भाई साहब की रोमांचक एकल नाट्य प्रस्तुति दी। देश और विदेश से कुल 765 प्रतिभागी अध्यापकगण, शोधार्थी, स्नातक-स्नातकोत्तर के विद्यार्थी व संस्कृति चिंतकों ने पंजीयन कराया जो लाईव स्ट्रीमिंग और सीधे तौर पर शामिल हुए। संयोजन व संचालन डॉ. अविनाश कुमार सिंह व धन्यवाद ज्ञापन डाॅ. पुष्पा कुमारी ने किया। तकनीकी समन्वयन का दायित्व बी. विश्वनाथ राव और ज्योतिप्रकाश महांती ने संभाला।

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