नेता बनना कोई मज़ाक है क्या—नेता का काम आउटसोर्स नहीं हो सकता—एक व्यंग्य

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ANNI AMRITA

सुबह सुबह पत्रकार रवि झा से बहस हो गई. बात कोई सामान्य नहीं थी देश-दुनिया की थी और हो भी क्यों न, आखिर हम जैसे देश दुनिया की चिंता करनेवालों की वजह से ही तो ये देश चल रहा है वरना तो क्या होता भगवान ही जानता है. खैर मुद्दे पर आते हैं कि बहस किस बात पर हो रही थी, बहस का विषय था – देश की राजनीति. मैं वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था औऱ माहौल की जमकर आलोचना कर रही थी और उसी कड़ी में नेताओं की बुराई किए जा रही थी जो रवि झा को जंच नहीं रही थी. मुझे गुस्सा आया औऱ मैंने उनसे कहा कि नेताओं की इतनी तरफदारी क्यों, आखिर वे करते क्या हैं, सिवाए जनता को आपस में लड़वाने के. रवि झा ने कहा कि नेता बनना कोई आसान बात है क्या?. ये कोई बच्चों का खेल नहीं. एक नेता को सुबह से लेकर रात तक औऱ अक्सर रात भर भी दौड़ लगानी पड़ती है. जिस आम जनता के काम कराने के लिए पैरवी करता है उसको लेकर उलाहना भी सुनना पड़ता है.100 में 8-10 काम ही उसके अपने होते हैं बाकी सारे काम जनता के ही होते हैं.लेकिन गाली नेता को पड़ती है.अगर किसी व्यक्ति के गैर कानूनी काम को लेकर प्रशासन से पैरवी करता है तो लोग नेता को ही गाली देते हैं, यानि जनता का काम चाहे कानूनी या गैर कानूनी लेकिन गाली नेता को मिलती है.नेता बनना कोई खेल नहीं.

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मैने सोचा ठीक ही तो कह रहे हैं रवि झा. नेता बनना सचमुच आसान बात नहीं.नेता बेचारा एक ही कपड़ा सुबह से पहने एक क्षण श्मशान जाकर शोकाकुल लोगों को सांत्वना भी दे देता है औऱ अगले पल शादी समारोह में जाकर दांत भी दिखा आता है. भले मौत कार्यकर्ता के ससुर के चाचा के फूफा की क्यों न हुई हो लेकिन श्मशान जाना पड़ता है. भले ही कार्यकर्ता की पत्नी के चाचा के ममरे भाई के ससुर की साली की भतीजी की ही शादी क्यों न हो पर जाकर दांत दिखाना ही पड़ता है. इतना ही नहीं इन सबसे निपटने के बाद घर जाकर इंतजार करती और नाराज होकर घूरती बीवी को झूठा आश्वासन देना पड़ता है कि अगली बार समय पर घर आएंगे और बाहर खाने जाएंगे.

चूंकि रवि झा की बातों में दम था इसलिए काफी हद तक श्मशान वाली बात मेरे दिमाग में आई औऱ नेता की हालत पर मेरा दिल थोड़ा पसीजा, लेकिन फिर भी मेरा दिमाग मानने को तैयार न हुआ.पहले तो श्मशान का उदाहरण मैंने देते हुए रवि झा से सहमति जताई लेकिन अगले ही पल फिर अपने तर्कों के बाण छेड़े और कहा कि पत्रकार भी तो यहां वहां दौड़ता है, वो भी बाईक से, नेता तो चार चक्के पर दौड़ता है.पत्रकार को भी तो अस्पताल से लेकर होटल तक के चक्कर काटने पड़ते हैं, कभी सॉफ्ट स्टोरी, कभी कॉरपोरेट स्टोरी, कभी अस्पताल की बदहाली , कभी थानों में दुर्व्यवहार, कभी बाढ़ की विभीषिका, कभी बारिश औऱ जल जमाव कभी दुर्घटना,कभी हत्या की खबर, कभी चीत्कार कभी क्रंदन, कभी सुख कभी दुख न जाने एक दिन में क्या क्या जीता है पत्रकार.
अब एक बार फिर बारी रवि झा के तर्कों की थी. उसने कहा—सही बात है पत्रकार को भी खूब चक्कर काटने पड़ते हैं, लेकिन पत्रकार वर्क एट होम कर सकता है. पत्रकारों के बीच आपसी सेटिंग इतनी रहती है कि एक दूसरे से वीडियो, खबरों का आदान प्रदान कर लेते हैं, पत्रकार न भी दे तो पत्रकार का जो स्रोत होता है वह भी अपने स्मार्ट फोन से खबरें वीडियो या अन्य रूप में पत्रकार को भेज देता है या किसी से भिजवा देता है. एक पत्रकार को आम तौर पर श्मशान जाने की जरूरत नहीं पड़ती जब तक कि मरनेवाला कोई सेलिब्रेटी न हो.पत्रकार बैठे बैठे विजुअल या फोटो मंगाकर स्टोरी लिख सकता है. लेकिन नेता अपना काम ऐसे नहीं कर सकता.

सही कह रहे हैं रवि झा. नेता को हर हाल में हर घड़ी हर क्षण जनता के बीच उपस्थित रहना पड़ता है, उसके बदले कोई और उपस्थित नहीं हो सकता, यही राजनीति का तकाज़ा है.रोजाना न सही पर फिर भी पत्रकार अपना काम कई बार आउटोसोर्स कर सकता है लेकिन नेता अपनी उपस्थिति आउटसोर्स नहीं कर सकता. जय हो नेता की.आज से मैं नेता के कष्ट को समझने की भरपूर कोशिश करूंगी.

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