अरिहंत ————- बज रहा दुदुंभी सीमा पर,

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अरिहंत
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बज रहा दुदुंभी सीमा पर,
पांचजन्य भी बज रहा,
छीड़ गया संग्राम सीमा पर,
मचाया है दस्यु ने कुहराम,
कर रहा है वार, बार-बार,
जागो तुम फिर एक बार।
दुखित, शोकाकुल है मनुसंतान,
भारती भी सुरक्षित नहीं,
लुट रही लाज माँ-बेटी की,
साँसें भी है थम रही,
दस्यु कर रहा है फुफकार,
जागो तुम फिर एक बार।
हे आद्यस्त्रष्टा,अज,विधि,विधाता हे,
चतुरानन, प्रजापति, धाता,निर्माता हे,
अब लगा ब्रह्मफांस दुष्टों को,
कर दे उसका अंत,बचा ले सृष्टि अपनी,
देखो अब तुम देर ना कर,
जागो तुम फिर एक बार।
हे शूलपाणि, उग्र, दुर्धुर्ष हे,
गणनाथ,त्रिपुरांतक,दिशानाथ,
बरसों बनकर तुम महाकाल,
दस्यु दल में मच जाये हाहाकार,
गूंजे फिर से तेरी जय-जयकार,
जागो तुम फिर एक बार।
हे भूतकृत,भूतमृत,भूतादि, भर्ता हे,
हे आत्मवान दे कृति हमें,
बन अच्युत, विक्रमी टूट पडूँ,
अरि की सेना हो जाये ध्वस्त, परास्त,
हो फिर से तेरी जय-जयकार,
जागो फिर से एक बार।
हे भाविनी, जया, क्रुरा,दुर्गा हे,
हे ब्रह्मी,माहेश्वरी, इंद्री हे,
अब चला शक्ति तुम चामुण्डा,
हे महाकाली, माँग रही तेरी जिह्वा,
दस्यु का गर्म शोणित धार,
जागो फिर से एक बार।
कुछ अरि बैठें हैं छद्मवेश में,
घर-घर कर रहा है अत्याचार,
मानवता मर गई है उसकी,
मचा रखा है हाहाकार,
हे अरिहंत पधारो अब तो,
जागो फिर तुम एक बार।

नोट :– यह कविता मेरी पुस्तक ‘ मधुकुंभ ‘ में संक्लित है।
प्रदीप कुमार मिश्र
निर्मलछाया,
कल्पनापुरी, आदित्यपुर।

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