रांची।
किसानों के आंदोलन में विपक्षी पार्टियां भी घुस गई हैं। ये अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश कर रही है। लेकिन इनका पाखंड कदम दर कदम छलक रहा है। अपने झारखंड के वित्त मंत्री हैं रामेश्वर उरांव जी, वह कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। उनका आदेश है कि किसानों से नमी वाला धान ना खरीदा जाए। लेकिन वह तथा उनकी पार्टी चाहती कि केंद्र सरकार किसानों की सारी उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद ले। उरांव साहब खुद नहीं खरीदेंगे, लेकिन केंद्र को नसीहत जरूर देंगे। झारखंड के कृषि मंत्री हैं बादल पत्रलेख। उन्होंने किसानों के हित में सड़क पर उतरने की बात कही है। लेकिन सरकार में आते ही किसानों के लिए चल रही मुख्यमंत्री कृषि आशीर्वाद योजना बंद कर दी। इसमें किसानों को प्रति वर्ष पच्चीस हजार रुपये तक की आर्थिक सहायता मिल रही थी। इसके साथ ही कृषि बीमा योजना का प्रीमियम, जो राज्य सरकार भर्ती थी, उसे भी देना उन्होंने बंद कर दिया। इधर किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए भटकना पड़ रहा है। सरकार उनकी उपज नहीं खरीद रही है। लेकिन झामुमो-कांग्रेस किसानों का हितैषी बनने का स्वांग जरूर रच रहे हैं। इसी को कहते हैं खुद मियां फजीहत, दीगरा नसीहत।
एक हैं राहुल गांधी। जिनके चलते कांग्रेस का जनाधार वेंटिलेटर पर है, लेकिन उनका अहंकार एक्सीलेटर पर है। उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा था कि कृषि उपज की खरीद का काम निजी हाथों में भी सौंपा जाना चाहिए, लेकिन जब मोदी सरकार ने यह काम कर दिया तो ट्वीट कर रहे हैं कि बहुत गलत हुआ।
एक मराठा क्षत्रप और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं शरद पवार। उन्होंने 2010 में सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर मंडियों की समाप्ति की वकालत की थी। लेकिन आज केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के विरोध में चिंघाड़ रहे हैं। खास बात यह भी है कि बिहार में 2006 में ही नीतीश कुमार ने मंडियां खत्म कर दी थीं, लेकिन 2017 में राजद और कांग्रेस ने जदयू के साथ सरकार बनाने के बाद मंडियों की बहाली के लिए एक शब्द नहीं कहा। जबकि उस समय कृषि विभाग कांग्रेस के ही पास था। ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जो विपक्ष के पाखंड को विदीर्ण कर देंगे। क्या ऐसा अविश्वसनीय विपक्ष कभी लोकतंत्र और देश के हित में सोच सकता है या कुछ कर सकता है। इन थके हारे नेताओं को किसानों का कंधा चाहिए लेकिन किसान इन्हें साठ-सत्तर वर्षों से जानते हैं।
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