सबसे बड़ा सवाल

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© मनीष सिंह “वंदन”
आईं टाइप आदित्यपुर जमशेदपुर झारखंड

आज का सबसे बड़ा सवाल : पैसे से सत्ता आती है अथवा सत्ता है तो पैसा स्वत: खींचा चला आता है ? मैं पूरी गारंटी के साथ बोल सकता हूं कि इस जटिलतम प्रश्न का उत्तर धर्मराज युधिष्ठिर के पास भी नहीं होगा ? यकीन ना हो तो आप उनसे पूछकर देख लीजिए, वो क्लीन बोल्ड ना हो जाएं तो कहना । काहें कि इन दोनों बातों में ऐसा चोली-दामन का साथ है कि इनको अलग-अलग मूल्यांकन करना वैसा ही असंभव है जैसा रावण के दरबार में अंगद के पैर का टस से मस नहीं होना ।।

आप सोचिए न भाई कि जिस देश की जनता भूखमरी के सूचकांक में नीचे से टॉप की श्रेणी में हो । आजादी के पचहत्तर साल बाद भी आमजनता को जिंदगी के बुनियादी तत्वों के लिए भी जद्दोजहद करना पड़ रहा हो । जहाॅं अस्सी प्रतिशत आबादी को मुफ्त में पाँच किलो अनाज इसलिए दिया जा रहा हो ताकि उनका किसी तरह गुजर-बसर हो सके । इस से तो इंकार कोई नहीं कर सकता ना कि देश की कुल आबादी के महज ५ प्रतिशत लोगों की इनकम शेष ९५ प्रतिशत आबादी की इनकम के बराबर है । वही लोग विशेष अमीरी के कीर्तिमान साल दर साल ध्वस्त करते जा रहे हैं । दूसरी तरफ देश में भुखमरी और रोजगार ना होने की दशा में आत्महत्या का ग्राफ महीने दर महीने बढ़ता जा रहा है सुरसा की मुंह की तरह । जिन सत्ताधीशों / पूंजीपतियों की अमीरी देखकर कुबेर भी शरमा जाए वहाॅं आप अब भी लोकतंत्र की बात करते हो, निर्वाचन प्रक्रिया में सुधार की बात करते हो, संविधान की बात करते हो । अरे भाई पहले सबको भरपेट भोजन, तन ढ़ंकने के लिए कपड़ा, बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य तो मुहैया करवा दो, एक बराबरी का ग्राउंड तो दो फिर सत्ता और सिंहासन के खेल की बात करना ।।

दिन प्रतिदिन गरीब और गरीब होते जा रहे हैं । है किसी को उनकी फिकर ? नहीं ना ? क्योंकि वह सिर्फ वोटबैंक है । वो झंडा उठाने, जयकारा लगाने और दरी बिछाने के काम आयेंगे इस से ज्यादा कुछ नहीं । पैसा, पैसे को आकर्षित करता है सर जी इसलिए अमीर और अमीर होते जा रहे हैं । इसके साथ ही अपनी अमीरी के ताज को बचाकर रखने के लिए सत्ता का कवच-कुंडल धारण करना उनके लिए बेहद जरूरी हो जाता है । इसलिए फेविकोल की तरह बड़ी ही मजबूती से सत्तारूढ़ों से चिपके रहते हैं । इसमें दोनों का ही फायदा अंतर्निहित होता है ।।

यही कारण है कि राजनेताओं और बड़े-बड़े पूंजीपतियों में जीजा- साला सा मधुर संबंध स्थापित हो जाता है । दोनों एक दूसरे के पूरक और सहायक की तरह तंत्र को अपनी मनमर्जी से चलाने लगते हैं और लोक को कोल्हू के बैल की तरह हांकने लगते हैं । एक अमनपसंद साधारण मध्यमवर्गीय मनुष्य अपने एरिया में वार्ड का चुनाव भी नहीं जीत सकता क्योंकि चुनाव लड़ना मतलब पैसे की नदी बहाना । अब जब पैसा निवेश किया गया है तो वसूली भी उसी हिसाब से होगी ही ना ? इसलिए जिनके पास सत्ता है उनके पास अकूत धन रूपी कुंजी भी है और जिनके पास अकूत धन है उनके ही माथे पर सत्ता का तिलक होता है ।।

वैसे तो कहा यह जाता है कि सत्ता की साझेदारी ही लोकतंत्र का मूलमंत्र है मगर ईमानदार और स्वस्थ छवि धरातल पर सरस्वती नदी की तरह बिल्कुल लुप्तप्राय है । इसलिए सब गोलमाल है । पहले ऐन-केन-प्रकारेण अकूत धन कमाए जाते हैं फिर उसकी ईंटों से सत्ता का शीश महल बनाया जाता है । फिर अपने आप ही उनके बगीचे के फव्वारे से धन की बरसात पुरजोर तरीके से होने लगती है । इसलिए पूछता है भारत ~ सत्ता से पैसा है अथवा पैसे से सत्ता है ? सबकुछ आपके सम्मुख है । खुद ही अवलोकन कीजिए ।।

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