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Home » JAMSHEDPUR NEWS :ब्रह्म ही एक मात्र‌ परम सत्य है जगत उन्हीं की मानस परिकल्पना से बनी है जो आपेक्षिक सत्य है
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JAMSHEDPUR NEWS :ब्रह्म ही एक मात्र‌ परम सत्य है जगत उन्हीं की मानस परिकल्पना से बनी है जो आपेक्षिक सत्य है

BJNN DeskBy BJNN DeskJuly 3, 2022No Comments5 Mins Read
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जमशेदपुर। आनंद मार्गी किता में आनंद मार्ग प्रचारक संघ द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय ,द्वितीय संभागीय सेमिनार में भाग ले रहे तीसरे दिन आनंद मार्ग के वरिष्ठ आचार्य नवरुणानंद अवधूत ने सृष्टि के मुल कारण पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्रागैतिहासिक युग से अभी तक मानव मन में सृष्टि के मुल कारण को जानने की जिज्ञासा बनी हुई है।इसका उत्तर जानने के लिए प्राचीन काल के ॠषियों, ब्रद्मविदों के पास जाकर अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए प्रश्न पूछते थे- ब्रद्म क्या है? हमारी उत्पत्ति का मूल कारण क्या है ? मुल आधार क्या है?हम क्यों सुख दुःख हर्ष ,विषाद के माध्यम से जीवन का अनुभव करते हैं । उन्हीं प्रश्नो में एक प्रश्न ये भी है कि ये सृष्टि क्या है?यह सृष्टि का मूल कारण क्या है?
उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए ऋषि कहते हैं- ब्रह्म ही एक मात्र‌ परम सत्य है जो शिवशक्त्यातमक है और यह जगत उन्हीं की मानस परिकल्पना से बनी है जो आपेक्षिक सत्य है। ब्रह्म परम सत्य है। जगत में हम अनेक चीजों को पाते हैं- ऐसे काल, नेचर ,(स्वभाव), नियति (,भाग्य) यदिच्छा( एक्सीडेंट), प्रपंच(पदार्थ) एवं जीवात्मा। क्या इनमे से कोई जगत का मूल कारण हो सकता है? क्या काल जगत का मूल कारण है? ऋषि कहते हैं कि काल जगत का मूल कारण नहीं है क्योंकि वह एक आपेक्षिक तत्व है क्योंकि काल क्रिया की गतिशीलता के उपर मन की कल्पना मात्र है। वहां काल भी नहीं है। अतः काल ,देश और पात्र पर निर्भरशील है । अतः काल ,मन सापेक्ष है। काल, वस्तु सापेक्ष है। सूर्य के कारण ही सौर वर्ष, सौर मास और सौर दिन होते हैं। अतः काल सृष्टि का मूल कारण नहीं हो सकता। ऋषि के सामने दूसरा प्रश्न रखा गया कि स्वभाव या नेचर विश्व का मूल कारण है? इस पर ऋषि ने कहा कि क्योंकि नेचर में कोई कर्तृभाव नहीं है नेचर प्राकृत शाक्ति का धारा प्रवाह मात्र है। सृष्टि लीला का धारा प्रवाह है। नेचर के आधार पर ही प्राणीयों के स्वभाव का निर्धारण होता है जिसे विज्ञान या जड़ विज्ञान कहते हैं। नेचर सिर्फ सत् रज और तम तीन गुणों का मात्र प्रवाह है। अतः प्रकृति की संचर प्रति संचर कालीन गति तरंग ही नेचर है। अतः यह वस्तु धर्म निर्धारक हो सकता है किंतु यह विश्व का मूल कारण नहीं हो सकता है। जब तीसरा प्रश्न ऋषि से पूछा गया कि तब क्या नियति या भाग्य विश्व का आदि मूल कारण है? ऋषि कहते हैं कि नहीं वह भी नहीं है। क्योंकि पात्र या व्यक्ति के कर्म करने के आधार पर प्रति कर्म के रूप में उसका भाग्य निर्धारित होता है। भाग्य कर्म के प्रति कर्म या संस्कार का फल भोग है अतः यह विश्व का मूल कारण नहीं हो सकता। ऋषि से चौथा प्रश्न पूछा गया कि तब क्या यदिक्षा (एक्सीडेंट) या अकस्मात घटना सृष्टि का मूल कारण है? ऋषि कहते हैं कि अकस्मात यह कारण एक्सीडेंटल होता कुछ नहीं होता सब कुछ सकारण इनशिडेन्टल होता है। जो कुछ भी होता है उसके पीछे कुछ ना कुछ कारण होता है। जहां भी कार्य है वहां कारण है- इससे कार्य ,कारण तत्व भी कहते हैं। तब ऋषि से पांचवा प्रश्न पूछा गया कि क्या सृष्टि का मूल कारण प्रपंच पंचभूत समूह या पदार्थ है? ऋषि ने कहा नहीं,प्रपंच ब्राह्मी चित्र का तमोगुण प्रभाव से स्थूलीकृत होने का परिणाम है अतः सृष्टि का मूल कारण नहीं हो सकता। अब अंत में लोगों ने ऋषि से पूछा कि क्या जीवात्मा सृष्टि का मूल कारण है? ऋषि ने कहा ऐसा भी नहीं है क्योंकि जीवात्मा ज्ञातृ सत्ता हो सकती है, कर्म शक्ति नहीं है। उसके द्वारा ज्ञान क्रिया संभव है मगर सृष्टि क्रिया संभव नहीं है वह केवल मन के प्रत्येक क्रियाकलाप का साक्षी मात्र है मन द्वारा किए गए पुण्य कर्म या पाप कर्म द्वारा थोड़े समय के लिए उपहत हो जाता है। तभी तो उसे पाप आत्मा या पुण्यात्मा न कर पापोंपहत पुण्योपहत चैतन्य कहते हैं। क्योंकि जीवात्मा न तो पापी है न पुण्यआत्मा है। अतः जीवात्मा परम तत्व नहीं हो सकता तब ऋषि से पूछा गया कि उपरोक्त तत्वों में किन्ही दो या अधिक के संजोग होने से सृष्टि का मूल कारण बनता है ?ऋषि ने कहा नहीं है क्योंकि सृष्टि का मूल कारण एक ही है- वह है ब्रह्म। ब्रह्म अकारण तत्व है जो सर्व जिज्ञासा का अंतिम उत्तर है वह परम तत्व है जो शिवशक्त्यातमकम ब्रम्ह है जो सर्व जिज्ञासा का अंतिम उत्तर हैं उसी के भीतर आपेक्षिक का धारा प्रवाह चल रहा है, वह क्षर, अक्षर, निरक्षर का संयुक्त भाव है। जीव जगत और ईश्वर उन्हीं में प्रतिष्ठित है। गुणातीत रूप में वे निर्गुण है, गुणाधीश रूप में ईश्वर उन्हीं में प्रतिष्ठित है गुणातीत रुप में वे निर्गुण है गुणाधीश रुप में निरक्षर हैं वे ही जीव भाव , और प्रकृति भाव तीनों को लेकर हैं वे सर्व व्यापक सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ हैं वे तिल में तेल की भांति एवं दूध में मख्खन की भांति सर्व व्यापक है उन्हें पाने के लिए यंत्र भाव से उनकी इच्छा अनुसार केवल अहंकार त्याग कर कार्य करते जाना होगा वही जीवों के परागति हैं।

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