व्यंग :: लोकतान्त्रिक देश के बाबा गण।

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विक्रम आदित्य सिंह

नब्बे दशक के अंतिम वर्षों में पटना में एक बार बहुते पॉपुलर बाबा का समागम आयोजित किया गया था। खूब ठाठ कटी उनकी, राजकीय मेहमान थे मजे से खाये पीये , फुल एसी में बैठ कर ३ दिनी सत्संग संपन्न करवाया। कई लोगों ने अपने केश मुंडवा कर दीक्षाएं भी ली। शहर का गाँधी मैदान ठसाठस रहा, रेलमपेल मची, जिन्हे आसन नहीं मिली वो बल्लियों पर उछल उछल कर बाबा के दर्शन करना चाह रहे थे। किनका भला हुआ किनका नहीं ये तो शोध का विषय है परन्तु एक बात तो तय है, इस समागम से व्यापार बहुत हुआ। अगरबत्ती से लेकर किताबें, तस्वीरों से लेकर तावीज तक सब कुछ बिका। दर्शन पाने वाले लोग सिर्फ ये सोचकर खरीद रहे थे कि बाबा के समागम में आये हैं कुछ तो यादगारी ले ली जाय। मेरे मित्र के पिताजी नें आसक्तिवश टेबल घडी ली जो अलार्म – हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम बजाती थी। (वो मित्र अगर पढ़ रहे हों तो बुरा मत मानना यार लेकिन उसे अलार्म नहीं लोरी / भजन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए था।)

अफ़सोस कि बाबा आज जेल में हैं। कहने का आशय ये है कि बाबागिरी का व्यापार से व्यापक सम्बन्ध है। जिधर बाबा विराजे नहीं – उधर धंधा शुरू। यही कारण रहा कि भारत बाबाओं का देश बन गया। किस तरह आस्था को दोहित करते हुए जेब टटोली जाय इसका प्रत्यक्ष मॉडल है बाबागिरी।

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जिधर बाबागण उधर मुद्रा महारानी विराजने लगीं , भाई आस्था सिर्फ बाबाओं की क्यूँ रहे – राजनीतिज्ञों को ये नागवार गुजरा। हर गली मोहल्ले के मंदिरों को मठ मानते हुए मठाधीशों की नियुक्ति हुयी जिसका सीधा या उल्टा सम्बन्ध राजनीती से था ही। बाबा के आशीर्वाद की कीमत तय हो गयी। 501/- रुपये में भैया इतना ही आशीर्वाद मिलेगा। ज्यादा सान्निध्य चाहिए तो 5001/- रूपये में ऑनलाइन बुकिंग कराइये। बाल बच्चा ठीक से पैदा कराना है तो 25000/- दीजिये और 7 दिनों के शिविर में भाग लीजिये। चार्ल्स डार्विन और चार्ल्स बैबेज दुन्नू का थ्योरी फ़ैल। बाबा का थ्योरी पास – सफल हुआ तो नया चढ़ावा, नयी रेफेरेंस और गर असफल हुआ तो आपका दोष। आपने शायद शिविर में बेमन भाग लिया।

अक्सर ही बाबाओं के मंच पर राजनीतिज्ञ देखे जाते हैं। पक्ष वाले नेता सान्निध्य वाली फोटो लेते हैं और विपक्ष वाले नेता वैसी फोटू लेते हैं जिसे प्रचारित करके नाम ख़राब किया जा सके। बाबा और आश्रम सिर्फ इसलिए खुश कि फोटो / वीडियो टीवी पे तो आयी। फिर वही मार्केटिंग स्ट्रेटेजी, नयी मार्किट, नए चंदे के स्रोत। अब वाईस वर्सा सोचिये – चुनाव से पहले नेता गण अपने अपने बाबाओं से सेटिंग लगवाते हैं। हवन करते हैं, प्रसाद बंटवाते हैं; भगवान् का प्रसाद अलग और भौतिक प्रसाद अलग। पिछले विधान सभा चुनावों में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री के एक वीडियो भी वायरल हुआ था जिसमे बाबा उनसे लिपट लिपट के शुभकामना दे रहे हैं।

भैया ये 360 डिग्री का दुष्चक्र है। हर कदम पे दोहन, मेहनत की कमाई कीजिये, बाबाओं को दीजिए, बाबा नेताजी को चुनाव लड़वाएंगे, नेताजी जीतकर आपपर अत्याचार करेंगे और फिर आप बाबा की शरण में जायेंगे। जब पढ़े लिखे लोगों का यह हाल है तो अनुमान लगाइये आम भोली भाली जनता का क्या होता होगा? बुखार लगने पर अब भी यकीन है कि लोकल मंदिर का बाबा विभूति लगा के बुखार छुड़ा देगा। वाह रे आस्था। पेरासिटामोल कम्पनी को तो शर्म से बंद हो जाना चाहिए।

कल परसों एक फ़ोन आया था दिल्ली के नम्बर से। बता रहे थे कि मेरी शनि की महादशा ख़राब है। सिर्फ दो पत्थर और एक रुद्राक्ष देकर मेरा जीवन सुधारने वाले थे। मैंने कहा कि शनि शत्रु नहीं मित्र है और फ़ोन काट दिया। सोचिये पहले नयी नौकरी के लिए फ़ोन आते थे आज आपकी आस्था को खरीदकर माल बेचना चाहते हैं।

धन्य हैं हमारे मठ और धन्य हैं हमारे राजनीतिज्ञ मठाधीश। पब्लिक है न सब जानती है फिर भी बकलोल बनी रहती है। कृपया बक्श दीजिये हमें, तभी हम आपकी इज़्ज़त कर पाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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