सिस्टम और समाज ने जीने की उम्मीद को बना दिया है पत्थर
जर्जर मकान में रहकर हर रात मांगती है जीने की दुआ
जहानाबाद। ” मौत से क्या डरना है साहेब, यह तो मिनटों का खेल है, आफत तो जिंदगी है, जो वर्षों से चली आ रही है।” किसी शायर की लिखी यह पंक्तियां मखदुमपुर प्रखंड के टेहटा रजाइन मोहल्ला निवासी सतीश साव और उसके परिवारों पर खरा उतरती है
उसका पूरा परिवार हर पल मौत के साए में जीने को विवश है। रात तो घर में कटती है। लेकिन, इस डर के साथ की शायद अगली सुबह देखने को न मिले। सिस्टम और बेरहम समाज ने उसके जीने की उम्मीद को पत्थर बना दिया है। लगभग सौ साल पुराना मकान जमींदोज हो चुका है। पुराने ज़माने की बनी छत कई जगहों से आसमान निहारता है। न गर्मी से राहत है और न ही बरसात के पानी से बचने की व्यवस्था। ऐसे जर्जर मकान में वह सालों से अपनी पत्नी और पांच बच्चों के साथ रहने को विवश है। सतीश की पत्नी फुलवा देवी ने बताया कि मकान के बगल में थोड़ी सी जमीन है, लेकिन उसपर भी पड़ोसी ने जानबूझकर विवाद खड़ा कर दिया है। सोची थी कि उस जमीन पर करकट डाल कर बच्चों के साथ सुरक्षित रहेंगे। लेकिन, बेरहम पड़ोसी को यह भी नहीं रास आया। बेवजह केस कर जमीन पर बाधा डाल रखा है। समाज से लेकर थाने पुलिस तक दौड़ लगाई, लेकिन कोई न्याय दिलाने को आगे नहीं आया। वह बताती है कि उसका नाम बीपीएल सूची में भी है। लेकिन अब तक लाभ मिलने की बारी नहीं आई। क्रमांक के इस खेल में उसकी आँखे पथरा गई लेकिन सिस्टम का यह खेल आगे कब तक जारी रहेगी, उसे पता नहीं। उसकी बेटी टूटी छत और जर्जर दीवार की और इशारा कर बताती है कि किसी को इंदिरा आवास मिलने के लिए इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है? घर में सोने वक्त यह डर लगता है कि कहीं पूरा परिवार दबकर मर न जाएं। लेकिन, इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। मरने के बाद सभी लोग आंसू बहाने पहुंचेंगे, लेकिन पल-पल मर कर जी रहें हैं तो उससे निकलने कोई आगे आने को तैयार नहीं। उसने बताया कि पराये तो पराये हैं, अपने भी इस दुःख में साथ नहीं है।
Comments are closed.