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आइए जाने गया को

BJNN DeskBy BJNN DeskApril 7, 2017No Comments11 Mins Read
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राहुल राज

गया।

बिहार का दूसरा सबसे बड़ा शहर और दुनिया भर के बौद्ध एवं हिन्दू धर्मावलंबियों द्वारा पवित्र माने जाने वाले शहर गया को बुद्ध, तिलकुट और ‘पिंड दान के धार्मिक कर्मकांड के लिए जाना जाता है। पटना से दक्षिण में 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गया शहर का बोद्धों और हिन्दुओं की धार्मिक गतिविधियों के लिहाज से ऐतिहासिक महत्व है। दोनों धर्म के लोग अपने धार्मिक कर्मकांड करने यहां हर साल आते हैं। फाल्गु या निरंजना नदी के तट पर स्थित इस शहर को हिन्दुओं में पूर्वजों को मोक्ष दिलाने के लिए पिंड दान के लिए

सबसे महत्वपूर्ण जगह माना जाता है। पिंड दान हर साल हिन्दू पंचांग के अश्विन महीने :सितंबर-अक्तूबर: में किया जाता है। जिस अवधि में पिंड दान किया जाता है उसे ‘पितृ पक्ष’ के रूप में जाना जाता है और दशहरा शुरू होने के दस दिन पहले यह समाप्त हो जाता है। इस अवधि को शादी, व्यापार और दूसरी गतिविधियों के लिए अशुभ माना जाता है। गया जिले से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बोधगया को बौद्ध श्रद्धालु सबसे पवित्र जगहों में से एक मानते हैं। यहां महाबोधि मंदिर और महोबोधि वृक्ष है जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान मिला था। इतिहासकारों के अनुसार ज्ञान मिलने के 250 साल बाद अशोक यहां आए थे जिस दौरान मूल महाबोधि मंदिर का निर्माण किया गया था। बाद में इसका जीर्णोद्धार किया गया। महाबोधि मंदिर के अलावा यहां कई छोटे-बड़े मदिर हैं। इनमें थाई मंदिर, कर्म मंदिर, दाईजोक्यो बुद्ध मंदिर, 80-फुट मंदिर, निप्पन मंदिर आदि शामिल हैं। वहीं शहर की यात्रा के अनुभव को यहां का प्रसिद्ध ‘तिलकुट’मीठा बनाता है। यह तिल औैर चीनी के मिश्रण से बनता है। का तिलकुट देश में सबसे अच्छा और बेजोड़ होता है. विष्णुपद मंदिर फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान विष्णु के पदचिन्हों पर किया गया है। यह मंदिर 30 मीटर ऊंचा है जिसमें आठ खंभे हैं। इन खंभों पर चांदी की परतें चढ़ाई हुई है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के 40 सेंटीमीटर लंबे पांव के निशान हैं। इस मंदिर का 1787 में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई ने नवीकरण करवाया था। पितृपक्ष के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जुटती है। बानाबर (बराबर)पहाड़ गया से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर बेलागंज से 10 किलोमीटर पूरब मे स्थित है। इसके ऊपर भगवान शिव का मन्दिर है, जहाँ हर वर्ष हजारों श्रद्धालु सावन के महीने मे जल चढ़ते है। कहते हैं इस मन्दिर को बानासुर ने बनवाया था। पुन: सम्राट अशोक ने मरम्मत करवाया। इसके नीचे सतघरवा की गुफा है, जो प्राचीन स्थापत्य कला का नमूना है। इसके अतिरिक्त एक मार्ग गया से लगभग 30 किमी उत्तर मखदुमपुर से भी है। इस पर जाने हेतु पातालगंगा, हथियाबोर और बावनसीढ़ी तीन मार्ग है, जो क्रमश: दक्षिण, पश्चिम और उत्तर से है, पूरब में फलगू नदी है। सूर्य मंदिर सूर्य मंदिर प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर के 20 किलोमीटर उत्तर और रेलवे स्टेशन से 3 किलोमीटर दूर स्थित है। भगवान सूर्य को समर्पित यह मंदिर सोन नदी के किनारे स्थित है। दिपावली के छह दिन बाद बिहार के लोकप्रिय पर्व छठ के अवसर पर यहां तीर्थयात्रियों की जबर्दस्त भीड़ होती है।

इस अवसर पर यहां मेला भी लगता है। ब्रह्मयोनि पहाड़ी इस पहाड़ी की चोटी पर चढऩे के लिए 440 सीढिय़ों को पार करना होता है। इसके शिखर पर भगवान शिव का मंदिर है। यह मंदिर विशाल बरगद के पेड़ के नीचे स्थित हैं जहां पिंडदान किया जाता है। इस स्थान का उल्लेख रामायण में भी किया गया है। दंतकथाओं पर विश्वास किया जाए तो पहले फल्गु नदी इस पहाड़ी के ऊपर से बहती थी। लेकिन देवी सीता के शाप के प्रभाव से अब यह नदी पहाड़ी के नीचे से बहती है। यह पहाड़ी हिन्दुओं के लिए काफी पवित्र तीर्थस्थानों में से एक है। यह मारनपुर के निकट है बराबर गुफा यह गुफा गया से 20 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। इस गुफा तक पहुंचने के लिए 7 किलोमीटर पैदल और 10 किलोमीटर रिक्शा या तांगा से चलना होता है। यह गुफा बौद्ध धर्म के लिए महत्वपूर्ण है। यह बराबर और नागार्जुनी श्रृंखला के पहाड़ पर स्थित है। इस गुफा का निर्माण बराबर और नागार्जुनी पहाड़ी के बीच सम्राट अशोक और उनके पोते दशरथ के द्वारा की गई है। इस गुफा उल्लेख ईएम फोस्टर की किताब, पैसेज टू इंडिया में भी किया गया है। इन गुफाओं में से 7 गुफाएं भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरख में है। महाबोधि मंदिर यह मंदिर मुख्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान हे। इस मंदिर में बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूत्र्ति स्थापित है। यह मूत्र्ति पदमासन की मुद्रा में है। यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूत्र्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को ज्ञान निर्वाण (ज्ञान) प्राप्त हुआ था। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्यान साधना करते हैं। आम लोग इस पार्क में मंदिर प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं। इस मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह व्यतीत किया था। जातक कथाओं में उल्लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य मंदिर के पीछे स्थित है। कहा जाता बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। मंदिर समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है। मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की 7 फीट ऊंची एक मूत्र्ति है। यह मूत्र्ति विजरासन मुद्रा में है। इस मूत्र्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूत्र्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था। इस मूत्र्ति की आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हुए हैं। बुद्ध के इन पदचिन्हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़ा अवस्था में बिताया था। यहां पर बुद्ध की इस अवस्था में एक प्रतिमाबनी हुई है। इस मूत्र्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है। मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद तीसरा सप्?ताह व्यतीत किया था। अब यहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है। महाबोधि मंदिर के उत्तर पश्चिम भाग में एक छतविहीन भग्नावशेष है जो रत्नाघारा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। दन्तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है। माना जाता है कि बुद्ध ने मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवा सप्ताह व्यतीत किया था। बुद्ध ने छठा सप्ताह महाबोधि मंदिर के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्यतीत किया था। यह क्षील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। इस क्षील के मध्य में बुद्ध की मूत्र्ति स्थापित है। इस मूत्र्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है। इस मूत्र्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना सांतवा सप्ताह इसी वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था। यहीं बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्यापारियों से मिले थे। इन व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की। इन प्रार्थना के रुप में बुद्धमं शरणम गच्छामि (मैं अपने को भगवान बुद्ध को सौंपता हू) का उच्चारण किया। इसी के बाद से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई। तिब्बतियन मठ महाबोधि मंदिर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित जोकि बोधगया का सबसे बड़ा और पुराना मठ है 1934 ई. में बनाया गया था। बर्मी विहार (गया-बोधगया रोड पर निरंजना नदी के तट पर स्थित) 1936 ई. में बना था। इस विहार में दो प्रार्थना कक्ष है। इसके अलावा इसमें बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा भी है। इससे सटा हुआ ही थाई मठ है (महाबोधि मंदिर परिसर से 1किलोमीटर पश्चिम में स्थित)। इस मठ के छत की सोने से कलई की गई है। इस कारण इसे गोल्डेन मठ कहा जाता है। इस मठ की स्थापना थाईलैंड के राजपरिवार ने बौद्ध की स्थापना के 2500 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में किया था। इंडोसन-निप्पन-जापानी मंदिर महाबोधि मंदिर परिसर से 11.5 किलोमीटर दक्षिणपश्चिम में स्थित मंदिर का निर्माण 1972-73 में हुआ था। इस मंदिर का निर्माण लकड़ी के बने प्राचीन जापानी मंदिरों के आधार पर किया गया है। इस मंदिर में बुद्ध के जीवन में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। चीनी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) का निर्माण 1945 ई. में हुआ था। इस मंदिर में सोने की बनी बुद्ध की एक प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण 1997 ई. किया गया था। जापानी मंदिर के उत्तर में भूटानी मठ स्थित है। इस मठ की दीवारों पर नक्काशी का बेहतरीन काम किया गया है। यहां सबसे नया बना मंदिर वियतनामी मंदिर है। यह मंदिर महाबोधि मंदिर के उत्तर में 5 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 2002 ई. में किया गया है। इस मंदिर में बुद्ध के शांति के अवतार अवलोकितेश्वर की मूत्र्ति स्थापित है। इन मठों और मंदिरों के अलावा के कुछ और स्मारक भी यहां देखने लायक है। इन्हीं में से एक है भारत की सबसे ऊंचीं बुद्ध मूत्र्ति जो कि 6 फीट ऊंचे कमल के फूल पर स्थापित है। यह पूरी प्रतिमा एक 10 फीट ऊंचे आधार पर बनी हुई है। स्थानीय लोग इस मूत्र्ति को 80 फीट ऊंचा मानते हैं। आसपास के दर्शनीय स्थल बोधगया आने वालों को राजगीर भी जरुर घूमना चाहिए। यहां का विश्व शांति स्तूप देखने में काफी आकर्षक है। यह स्तूप ग्रीधरकूट पहाड़ी पर बना हुआ है। इस पर जाने के लिए रोपवे बना हुआ। इसका शुल्क 25 रु है। इसे आप सुबह 8 बजे से दोपहर 12.50 बजे तक देख सकते हैं। इसके बाद इसे दोपहर 2 बजे से शाम 5 बजे तक देखा जा सकता है। शांति स्तूप के निकट ही वेणु वन है। कहा जाता है कि बुद्ध एक बार यहां आए थे। राजगीर में ही प्रसद्धि सप्तपर्णी गुफा है जहां बुद्ध के निर्वाण के बाद पहला बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यह गुफा राजगीर बस पड़ाव से दक्षिण में गर्म जल के कुंड से 1000 सीढियों की चढाई पर है। बस पड़ाव से यहां तक जाने का एक मात्र साधन घोड़ागाड़ी है जिसे यहां टमटम कहा जाता है। इन सबके अलावा राजगीर मे जरासंध का अखाड़ा, स्वर्णभंडार (दोनों स्थल महाभारत काल से संबंधित है) तथा विरायतन भी घूमने लायक जगह है। नालन्दा यह स्थान राजगीर से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल में यहां विश्व प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था। अब इस विश्वविद्यालय के अवशेष ही दिखाई देते हैं। लेकिन हाल में ही बिहार सरकार द्वारा यहां अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय स्थापित करने की घोषणा की गई है जिसका काम प्रगति पर है। यहां एक संग्रहालय भी है। इसी संग्रहालय में यहां से खुदाई में प्राप्त वस्तुओं को रखा गया है। नालन्दा से 5 किलोमीटर की दूरी पर प्रसिद्ध जैन तीर्थस्थल पावापुरी स्थित है। यह स्थल भगवान महावीर से संबंधित है। यहां महावीर एक भव्य मंदिर है। नालन्दा-राजगीर आने पर इसे जरुर घूमना चाहिए। नालन्दा से ही सटा शहर बिहार शरीफ है। मध्यकाल में इसका नाम ओदन्तपुरी था। वर्तमान में यह स्थान मुस्लिम तीर्थस्थल के रुप में प्रसिद्ध है। यहां मुस्लिमों का एक भव्य मस्जिद बड़ी दरगाह है। बड़ी दरगाह के नजदीक लगने वाला रोशनी मेला मुस्लिम जगत में काफी प्रसिद्ध है। बिहार शरीफ घूमने आने वाले को मनीराम का अखाड़ा भी अवश्य घूमना चाहिए। स्थानीय लोगों का मानना है अगर यहां सच्चे दिल से कोई मन्नत मांगी जाए तो वह जरुर पूरी होती है।

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