*विजय सिंह


नई दिल्ली।
विगत ८ नवम्बर की रात अचानक देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ५००-१००० के नोटों को बंद करने की घोषणा की तब शायद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि इस मुद्दे पर इतना व्यापक जनसमर्थन उन्हें मिलेगा.चार घंटे का समय दिया गया,जनमानस को मध्यरात्रि तक अपने स्वयंचालित मुद्रा वितरण यन्त्र (ए टी एम्.) से नकद निकासी के लिए .आमतौर पर खाली रहने वाले ए.टी.एम् अचानक लोगों की लंबी लाइनों के गवाह बनने लगे.जो जहाँ था ,भागता हुआ एटीएम् की शरण में पहुंचने लगा.लोगों की एक ही मंजिल थी ए टी एम् मशीन.प्रधानमंत्री ने देश के लोगों को नोटबंदी की घोषणा करते हुए बताया था कि यह कदम कालाधन बाहर निकालने,जाली करेंसी से आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने ,भ्रष्टाचार रोकने और अन्य अनैतिक कामों पर रोक लगाने के उद्देश्य से उठाया गया है.
आंकड़ों की माने तो देश में कुल मौजूद नकदी का ८६ प्रतिशत ५००-१००० के नोटों के रूप में ही परिचालित था.करीब १४ लाख करोड़ ५००-१००० के नोट देश की अर्थव्यवस्था में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रहे थे,दिक्कतें आनी लाजिमी थीं.सरकार ने संवैधानिक मान्यता निरस्त किये गए नोटों को बैंकों में जमा करने या सीमित मात्रा में बदलने का निर्देश दिया.लंबी कतारें,घंटों का इन्तेजार ,सारे दूसरे काम ठप्प,सूने बाजार ,दुकाने.शादी विवाह ,लगन का समय,दिक्कतें स्वाभाविक.परंतु महत्वपूर्ण यह कि तमाम दिक्कतों परेशानियों के बावजूद न तो लोगों का भरोसा प्रधानमंत्री के प्रति कम हुआ ,न ही किसी ने उनके इस कदम को गलत कहा.जनाधार घटता भी नहीं दिखा
हालाँकि सरकार ने और विशेषतः देश के “प्रधान सेवक” नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की जो दलीलें प्रारम्भ में दीं थीं,समय समय पर उसकी दिशा दशा बदलती गयी.आज एक महीने के बाद सरकार इसे नकद रहित अर्थव्यवस्था और डिजिटल भारत की परिकल्पना को बढ़ावा देने में जुटी है.प्रधानमंत्री ने देश की जनता से ५० दिन का समय माँगा था ,३० दिन बीत चुके परंतु न तो बैंक ,एटीएम में कतारें कम हुईं न ही अफरा तफरी.धीरे धीरे देश की अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर दिखने लगा है.हाँ,सरकार कालाधन और कराधन को उनकी प्राथमिकताओं में गिनाती रहीं है,लेकिन महेश शाह के १३८०० करोड़ और अब्दुल के २ लाख करोड़ की घोषणा के सच्चाई कुछ और ही बयां करते हैं.
मीडिया में लोगों की जमीनी परेशानी से रूबरू होने के बाद सरकार ने बैंकों से नकद निकासी की सीमा तो बढ़ा दी लेकिन बैंकों में पर्याप्त करेंसी नहीं होने की वजह से बैंक पूर्व में तय राशि भी देने में आना कानी करते दिखे.जहाँ एटीएम में घंटों लाइन में लगने के बाद भी बिना रुपये मायूस होकर लोग लौटते दिखे वही सरकार का यह दावा भी फुस्स साबित हुआ कि एटीएम में ५०० और २००० के नए नोटों को लैस कर दिया गया है.बैंगलोर के तमाम एटीएम में ५०० के नए नोट कहीं नहीं दिखे बड़े शहरों में तो डेबिट /क्रेडिट कार्ड से खरीदारी संभव रही परंतु छोटे शहरों में अभी भी दिक्कतें हैं.ग्रामीण इलाकों में शुरुआत कुछेक जगहों पर हुई परंतु अभी यह एक लंबी प्रक्रिया है और तुरंत सब कुछ बदल कर अत्याधुनिक हो जायेगा,ऐसा प्रतीत नहीं होता.
अभी तक प्रधानमंत्री की मंशा को गलत नहीं ठहराया परंतु बैंक और वित मंत्रालय इस समस्या का निदान करने में असफल रहे.बचत खाते से २४००० और चालू खाते से ५०००० की रकम देने में भी बैंक सफल नहीं दिखे ,करेंसी के अभाव का रोना रोकर बैंक आज भी न्यूनतम राशि लेने का अनुरोध कर रहें हैं.
दूसरी तरफ दुनिया में सबसे तेजी से विकास की गति पर दौड़ने का ख़िताब भारत से छिनने का खतरा भी उत्पन्न हो गया है क्योंकि एक ठहराव तो अर्थव्यवस्था में आता जरूर दिख रहा है.छोटे उधमों और दैनिक मजदूरों पर नोटबंदी की मार सबसे अधिक पड़ी है.रिज़र्व बैंक बैंकों को नए करेंसी उपलब्ध करवाने में पिछड़ता नजर आ रहा है.
एक सर्वेक्षण के मुताबिक अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र में सबसे अधिक गिरावट दर्ज की गयी है.स्वयं अर्थशास्त्री पूर्व प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने सकल घरेलु उत्पाद में २ प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट का अनुमान दिया है. वैश्विक वित्तीय सलाहकार कंपनी नोमुरा ने चालू तिमाही में भारत का सकल घरेलु उत्पाद घटकर ६.५ प्रतिशत रहने का अंदेशा लगाया है.
अब यदि नोटबंदी के फैसले को अर्थव्यवस्था की बजाय विकासवादी खेल सिद्धांत और राजनीतिक लाभ से जोड़ कर देखें तो भी अभी राहें उतनी आसान नजर नहीं दिखतीं.डिजिटल इंडिया प्रधानमंत्री मोदी की महत्वाकांक्षी परियोजना है और संभवतः वे उसे पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेंगे,लेकिन उसमे जिद की बजाय व्यवहारिकता का तड़का ज्यादा डालना होगा.हम इसे सकारात्मक रूप में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के कंप्यूटर क्रांति से जोड़ कर देख सकते हैं.
सरकार की मंशा डिजिटल इंडिया के जरिये जनता को सहूलियतें दिलाने की हैं,लेकिन पर्याप्त नेटवर्क के बिना यह संभव होता नहीं दीखता.बिना इंटरनेट के इसके कोई मायने नहीं हैं.दूसरा बड़ा लक्ष्य सबको स्मार्ट फ़ोन उपलब्ध करने की है.आमतौर पर अच्छे स्मार्ट फ़ोन ६००० रुपये से कम में नहीं मिलते तो क्या हम यह समझे कि सभी के पास फ़ोन खरीदने की क्षमता आ गयी है? क्यों नहीं सरकार कम कीमत में जन सहूलियत के फ़ोन उपलब्ध कराये?क्या तैयारी है सरकार की?वाई फाई और जन इंटरनेट पहुँच कार्यक्रम के सन्दर्भ में अब भी हम काफी पीछे हैं.यह योजना कई वर्षों से लंबित है. सरकारी दफ्तरों और सेवाओं को पूर्ण रूप से डिजिटल बनाने के बाद ही ई गवर्नेन्स की बात की जा सकती है.ई कॉमर्स कंपनियों की पहुँच अभी तक बड़े शहरों या मुख्य शहरों तक ही सीमित है.सरकार ने ग्रामीण डिजिटाइजेशन के क्षेत्र में कितना काम किया है ,यह भी ध्यान रखना होगा.
जहाँ तक राजनीतिक लाभ का प्रश्न है तो नोटबंदी एक अघोषित वास्तविकता हो सकती है.कालाधन और भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा आरोप राजनीतिक पार्टियों पर लगता रहा है.नकद सहित चुनाव की वर्षों पुरानी परंपरा के बीच दस्तक दे रहे कई राज्यों के चुनावी नववर्ष में नकद रहित चुनाव कितने पारदर्शी होंगे ,यह तो चुनाव के समय ही पता लगेगा लेकिन फिलहाल नकद रहित अर्थव्यवस्था की पटरी को आम जनजीवन में सामान्य होने में काफी वक्त लगता जान पड़ रहा है.सुखद तो तब कहा जायेगा जब १२५ करोड़ देशवासियों की कालाधन और भ्रष्टाचार के विरोध में प्रधानमंत्री मोदी की तरफ आशाभरी निगाहें और सफ़ेद धन का सपना हकीकत में बदलती नजर आएंगी.