Positive Sunday:कामकाजी महिलाओं के संघर्ष और जिम्मेदारी व लक्ष्य के बीच के संतुलन के जद्दोजहद की दास्तां है रुना राजीव कुमार की किताब ‘वीकेंड माॅम’
टाटा स्टील की पूर्व अधिकारी रुना राजीव कुमार ने लेखन की दुनिया में रखा कदम
Anni Amrita
जमशेदपुर.
रुना (पूरा नाम–रूना राजीव कुमार)से पहली मुलाकात हुई थी (2006-2007) तब वह इकोनाॅमिक्स टाइम्स में कार्यरत थीं.हम दोनों में काॅमन फैैक्टर सिर्फ ‘वर्किंग मदर’ होना नहीं था बल्कि हम दोनों महिलाएं उस दौर में फील्ड में रिपोर्टिंग कर रही थीं जब छोटे शहरों में लड़कियां पत्रकारिता जगत में इक्का दुक्का ही दिखती थीं.स्वभाव से शांत रूना से दोस्ती होने में वक्त नहीं लगा.कई बार वह अपनी नन्हीं बच्ची को लेकर प्रेस कांफ्रेंस में आती.जब तक रूना अपना काम करती,हेल्पर या अन्य गाड़ी में बच्चे को संभालते..यह संघर्ष आसान नहीं था और जब मैं ऐसे दृश्य देखती तो रूना और सभी वर्किंग मदर के संघर्ष को सलाम करती क्योंकि हमारे देश में अब तक ऐसा सिस्टम नहीं बन पाया कि वह सभी कामकाजी महिलाओं के लिए ऐसी व्यवस्था धरातल पर बना सके कि वह निश्चिंत होकर काम कर सके. पत्रकारिता जगत में तो उन महान परिवारों के भरोसे काम चल रहा है जिन्होंने पत्रकारों के बच्चों के परवरिश में अपना समय और ऊर्जा भरपूर लगा रखा है.
आज रुना के साथ पहली मुलाकात और आगे की मुलाकातों के सिलसिले इसलिए याद आए क्योंकि रूना की पहली किताब की शुरुआत उसी दौर से हुई है.पहला पेज पढते ही मेरी स्मृतियां कैसेट की तरह रिवाइंड होने लगी.हां,तो मैंने बताया कि रूना इकोनाॅमिक्स टाइम्स में थीं..2008आते आते रुना ने टाटा स्टील ज्वाइन कर लिया जिसकी तब चारों तरफ प्रशंसा हुई.हमारे समाज में जब कोई लड़की रिपोर्टिंग करती है और उसकी शादी हो जाती है व बच्चे हो जाते हैं, तब लोग उसे ‘सेट’ होने की सलाह देते हैं क्योंकि पत्रकारिता जगत में राजधानियों को छोड़कर छोटे छोटे केंद्रों में सुविधाएं कम और काम काफी चुनौतीपूर्ण होता है.उस हिसाब से रुना का यह कदम सही था.टाटा जैसे बड़े ब्रैंड में जाना वाकई एक समझदारी भरा कदम था.लेकिन क्या यह इतनी आसान जर्नी थी कि एक लाइन में सारी बातें आ जाए?नहीं, यह जर्नी आसान नहीं थी.उसके बाद के लंबे दौर के संघर्ष,उतार-चढाव और खासकर वर्किंग मदर के उधेड़बुन,कामकाज और निजी जिंदगी के बीच संतुलन बनाने की कला सीखते सीखते अपने आप के उभरने और बेहतर बनने की यह कथा है–वीकेंड माॅम–जिसे टाटा स्टील की पूर्व अधिकारी रुना राजीव कुमार ने बेहतरीन, सरल और स्पष्ट तरीके से लिखा है.इसे पढ़ने के दौरान हर कामकाजी महिला खुद को रिलेट करेगी जो एक प्रोफेशनल रोल और मां सह पत्नी के रोल के बीच संतुलन और सामंजस्य बिठाने की जद्दोजहद के बीच एक ‘अपराध भाव’ से भी ग्रसित रहती है कि वह हमेशा अपने बच्चों के लिए उपस्थित नहीं हो पा रही है.मगर क्या यह अपराध बोध सही है?इस बात को बगैर कहे भी यह पुस्तक इस प्रश्न और इसके जवाब की ओर इशारा करती है.
संतुलन बनाते बनाते एक स्त्री किन किन दौरों से गुजरती है उसका बड़े ही भावनात्मक तरीके से रुना ने चित्रण किया है.कहानी की शुरुआत पढते ही सभी पत्रकार साथियों को वह दौर याद आ जाएगा जब रुना ने पत्रकारिता छोड़कर काॅरपोरेट जगत का रूख किया और टाटा स्टील ज्वाइन करने के कुछ समय बाद ही नोवामुंडी ट्रांसफर हो गया जहां कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट में उन्होंने अपनी सेवा दी.यही वजह है कि पत्रकारों से रुना का संपर्क बना रहा क्योंकि नोवामुंडी में कवरेज हेतु जमशेदपुर से आना जाना होता रहा.मगर सब अपनी जिंदगी में इतने व्यस्त रहे कि कभी निजी जिंदगी के संघर्षों, उतार चढाव व खट्टे मीठे पलों पर खुलकर बात ही नहीं हुई..मुझे याद है कि नोवामुंडी में न्यूज कवरेज के लिए जाने पर अक्सर रुना के साथ हम महिला पत्रकार प्रोग्राम बनाते कि कभी आराम से आएंगे और रुना के पास रुककर प्रकृति की गोद में कुछ समय बिताएंगे, पर यह प्लान कभी फलीभूत न हो पाया और कई सालों के बाद रुना का जमशेदपुर ट्रांसफर हो गया.
अब जबकि रुना की पहली किताब अमेजन पर उपलब्ध है मैंने ऑर्डर करने देर न करते हुए इसे प्राप्त कर एक सांस में पूरा पढ़ लिया.आप सब भी पढ़ें और एक ऐसी यात्रा से खुद को जोड़ें जिनसे आप या तो गुजरें हैं या आपने अपने आस पास देखा है.अंत में काॅरपोरेट जगत से ब्रेक लेकर लेखिका बनने पर रूना राजीव कुमार को ढेर सारी बधाइयां..यह किताब कई अर्थों में प्रेरणास्रोत रहेगी..