सुपौल- समाचकेवा उत्साह परवान पर

 

 

sonu kumar bhagat (1)

सोनू कुमार भगत

छातापुर (सुपौल ) ।

सुपौल जिला सहित छातापुर प्रखण्ड क्षेत्र में  भाई बहन का स्नेह का पर्व समाचकेवा का उत्साह परवान पर है । महिलाये तथा लडकिया मिटटी से सामा चकेवा सहित अन्य की मुर्तिया बनाने में तल्लीनता से जुटी है ।    आठ दिनों तक मनाई जाने वाली सामा-चकेवा भाई-बहन के अगाध प्रेम की अमरगाथा वाली पारंपरिक पर्व है।जिसको लेकर क्षेत्र में उत्सवी माहौल व्यापत है । घर घर सामा चकेवा से जुडी गाने चुगला करे चुगली बिलैया करे म्यून ,गाम के अधिकारी हमर बड़का बईया हो आदि बज रहे है । समाचकेवा के सम्बन्ध में कहा जाता है भगवान श्री कृष्ण से जुड़े रहने की वजह से इस पर्व की महत्ता अधिक बढ़ जाती है। सामा-चकेवा पर्व को मानाने वाली लड़कियां अपने-अपने सहेलियों के संग प्रतिकात्मक रूप से मिट्टी की सामा,चकेवा,चुगला व पक्षी बनाती है। मूर्ति गढ़ने के दौरान लोक गीत-नाद की रसधारा बहती है। इसके बाद कार्तिक पूर्णिमा की संध्या सभी प्रतिकात्मक मूर्तियों को नदी या तालाब मे विसर्जित कर दी जाती है। विसर्जन के समय महिला व लड़किया सब भावुक हो जाती है। वही सभी की आंखे डब-डबा जाती है। पर्व की वास्तविकता व पौराणिक मान्यता ये है कि मथुरा के महाराज भगवान श्री कृष्ण की बेटी सामा व बेटा सांभ के अमर प्रेम की गाथा की स्मृति है। इस अमरगाथा के एक पात्र कुमार चारुवक्र (चकेवा) जो सामा के प्रेमी व सावंत चूरक (चुगला) भी सामा से एकतरफा प्रेम की मूलगाथा सामा-चकेवा पर्व मे सम्माहित है।सामा-चकेवा पर्व की क्या है पौराणिक कथासामा-चकेवा पर्व की तथ्यात्मकता व वास्तविकता से पर्व करने वाली लड़किया को भी जानकारी की अभाव बनी रहती है। सामा-चकेवा एक कहानी है।  कहते हैं की सामा कृष्ण की पुत्री थी जिनपर अबैध सम्बन्ध का गलत आरोप लगाया गया था।  जिसके कारण सामा के पिता कृष्ण ने गुस्से में आकर उन्हें मनुष्य से पक्षी बन जाने की सजा दे दी।  लेकिन अपने भाई चकेवा के प्रेम और त्याग के कारण वह पुनः पक्षी से मनुष्य के रूप में आ गयी। मैथिली भाषा में चुगलखोरी करने वाले को चुगिला कहा जाता है।  मिथिला में लोगों का मानना है कि चुगिला ने ही कृष्ण से सामा के बारे में चुगलखोरी की थी। सामा खेलते समय महिलायें मैथिली लोक गीत गा कर आपस में हंसी – मजाक भी करती हैं। भाभी-ननद से व ननद-भाभी से लोकगीत की ही भाषा में ही मजाक करती हैं। अंत में चुगलखोर चुगिला का मुंह जलाया जाता है और सभी महिलायें पुनः लोकगीत गाती हुई अपने-अपने घर वापस आ जाती हैं। ऐसा आठ दिनों तक चलता रहता है।  यह सामा-चकेवा का उत्सव मिथिलांचल में भाई -बहन का जो सम्बन्ध है उसे दर्शाता है।  यह उत्सव यह भी इंगित करता है कि सर्द दिनों में हिमालय से रंग- बिरंग के पक्षियाँ मिथिलांचल के मैदानी भागों में आ जाते हैं।पदम पुराण मे भी है चर्चापदम पुराण के अनुसार भगवान श्री कृष्ण की बेटी सामा चारुवक्र से लूक-छुप प्रेम करती थी और सामा ने अपने पिता श्री कृष्ण की सहमति से ही चुपके से गांधर्व विवाह कर ली थी। इस विवाह से समाज व परिवार के अन्य लोग अनभिज्ञ थे। सावंत चूरक यानि चुगला ने सामा व चारुवक्र के खिलाफ षड्यंत्र रचकर महाराज भगवान श्री कृष्ण से न सिर्फ शिकायत की बल्कि पूरे राज्य मे सामा के चरित्रहीनता की भी अफवाह फैला दिया। महाराज श्री कृष्ण ने आकूत होकर सामा को दरबार मे हाजिर होने का आदेश दिया। सामा जब दरबार मे हाजिर हुई तो महाराज श्री कृष्ण ने बिना जाने-सुने शापित करते हुए चरित्रहीनता को वंश की कलंक मानते हुए कहा कि तुम आज और अभी से पक्षी बनकर वृन्दावन की जंगलो मे भटकती रहेगी।मिथिलांचल मे कैसे बनी परंपरा   पिता की शाप से जब सामा पक्षी बन गयी तो प्रेमी चारुवक्र ने सामा को नहीं पाकर उसकी तलाश मे निकाल पड़े। बेचारी पक्षी सामा तलाश मे जुटे चारुवक्र के कंधा पर बैठ पूरी घटना से अवगत कराई। सामा को पाने व मनोवांक्षित फल की प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु का छह साल तक उपासना किया तो भगवान विष्णु ने खुश होकर चारुवक्र से बोला बोलो क्या वर मांगते हो…सामा से मिलने की वरदान मांगा…  भगवान विष्णु ने कहा की जिस किसी को तुम अपनी कथा सुनावोगे तो तुम भी पक्षी बन जावोगे और सामा से तभी मिल सकते हो। सामा के भाई सांभ सामा व चारुवक्र दोनों से असीम प्यार करता था और उनके प्रेम की असलियत भी पता था, साथ ही पिता की शाप से अपनी बहन व बहनोई की पक्षी योनि से मुक्ति दिलाने के लिए सांभ ने भगवान शिव व विष्णु की आराधना करना शुरू किया तो प्रसन्न होकर भगवान ने उपाय बताते हिए कहा कि जब सम्पूर्ण मिथिलांचल की महिलाये और लड़कीयां कार्तिक मास के छठ के दिन से सामा व चकेवा की पूजा-अर्चना करेगी और कार्तिक पूर्णिमा की रात चूरक यानि चुगला के मुंह मे आग लगाकर जल मे विसर्जित करेगी तभी सामा-चकेवा मनुष्य योनि मे वापस लौट सकेगी। तभी से यह पर्व मिथिलांचल मे परंपरा बन गयी जो आज भी कायम है।

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