शिक्षा-1
अजय धारी सिंह, मधुबनी

एक जमाना था जब लोग अपने को पढ़ा लिखा और अनपढ़ के दो हिस्से में बाँट लेते थे और पढ़े लिखे अपने को अनपढ़ से काफी आगे मानते थे। उस समय काफी हद तक वो बात सही भी होती थी।
उस समय निजी विद्यालय का आज जो हाल है वो हुआ ही नहीं करता था। सभी पढाई की जिम्मेवारी सरकारी विद्यालयो पे होती थी। शिक्षक को समाज में सभी गौरव की नज़र से देखते थे और समाज के सबसे अग्रिम पंति में उन्हें रखा भी जाता था।
मिडिल स्कूल तक पढ़ें हैं या आठवीं पास कहलाना भी बहुत पढ़ा हुवा माना जाता था।
उसकी तुलना आप आज कल के बारहवीं पास छात्र या छात्रा से कर सकते हैं।
मैट्रिक पास विद्याथी की तो बात छोड़िये मैट्रिक फेल होना या यूँ कहें की मैट्रिक के परीक्षा में भाग लेने के बाद ही उसकी हैसियत बदल जाती थी। पास होने पे दूर दूर तक चर्चा होती थी। डिवीज़न वाले चाहे वह फर्स्ट हो या सेकंड या थर्ड का अलग क्लास होता था।
कॉलेज में एडमिशन हो गया और आपने स्नातक(ग्रेजुएशन) कर लिया तब आपसे कोई आज कल की तरह आपके विषय पे लंबी बहस करने से पहले सोचता था की बहस करना बेकार है या काफी तयारी करनी परती थी।
स्नातकोत्तर(पोस्ट ग्रेजुएट) और पीएचडी के बाद उनके जिह्वा से जो निकला उसे सही माना जाता था। कुछ लोगों के बारे में यहाँ तक कहा जाता था की उनके जिह्वा पे सरस्वती विराजमान रहती है।
दरअसल ये सब बातें इसलिए होती थी की उस समय जो पढाई होती थी वह काफी कठिन होती थी और उन्हें तपाकर कुंदन बना देती थी। इससे निकले छात्र या छात्र को किसी भी कसौटी पर जाँच परख कर देखा जाता तो भी कोई फर्क नहीं परता था।
आज के टॉपर को सवालों से डर लगने लगता है, तबियत ख़राब हो जाती है, सीधे शब्दों में कहें तो उन्हें सौ बहाने नज़र आने लगते हैं।
दरअसल अब न तो शिक्षक वैसे हैं और न ही विद्याथी।
ऊपर से सरकार का फरमान की जैसा विद्यार्थी का रिजल्ट आएगा वैसा ही आपका अनुदान (पेमेंट) होगा। इसके बाद भी अगर कुछ मिलता है तो ये की न तो विद्याथी को पढाई से मतलब न ही शिक्षक को। दोनों को बस अच्छा रिजल्ट चाहिए। इसी कसमकस ने बिहार के रिजल्ट कांड को जन्म दिया।
निजी बीएड कॉलेजों के कामकाज को लेकर शिक्षा विभाग को इस सिलसिले में कई शिकायतें मिली थी। उसके बाद सभी 228 बीएड कॉलेजों की जांच की की बात कही गयी।
इंटरमीडिएट के टॉपर घोटाले के आलोक में बिहार सरकार ने राज्य में ‘गुणवत्तापूर्ण शिक्षा’ प्रदान करने के धर्मनिरपेक्ष महागठबंधन सरकार के एजेंडे के तहत “ऑपरेशन क्लीन अप” पहल शुरू की है।
शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी ने संवाददाताओं से कहा कि हम राज्य में शिक्षा का स्तर बनाए रखने के लिए ऑपरेशन क्लीन अप शुरू करेंगे। जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों को इन कॉलेजों का भौतिक सत्यापन करने को कहा गया है।
लेकिन यहाँ ये बात गौरतलब है की जो कोई भी शिक्षा माफिया है वो अपनी पहुँच सरकार के सबसे ऊपर बैठे लागों तक रखना चाहता है। कुछ शिक्षा माफिया की वैसी पहुँच भी है। जिस किसी का जिस स्तर का काम है वैसी उसकी पहुँच। सामान्यतया जिले स्तर पे तो सभी की पहुँच है ही। ऐसे में जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को भौतिक सत्यापन का कार्य देना कहीं दबाव में न ला दें।
जैसे की बच्चा रॉय जैसे लोगों की पहुँच ही ऐसी थी की आज तक ये घोटाला सामने ही नहीं आता अगर मीडिया ने इसे दिखाया न होता। अख़बार के पेज 3 में भी अगर खबर छपती है तो उनकी पहुँच सिमित छेत्र तक हो के रह जाती है। जिले से बाहर जाना शायद ही नसीब होता हो, ऊपर से ऐसे लोगो का जो अख़बार को साल भर भरपूर विज्ञापन भी देते हैं।
उनकी भी मजबूरी है, बिना विज्ञापन अख़बार ही नहीं चलेगा। अख़बार नहीं चलेगा तो क्या होगा?
क्या करेंगे वो?
कभी कभी कोई खबर ऐसी छप भी जाती है लेकिन उसकी चर्चा कौन करने देता है। कल फिर दूसरे खबर पे चर्चा सुरु हो जाती है। जिससे की इनकी(शिक्षा माफिया) खबर पे ज्यादा चर्चा ही न हो।
क्योँ चर्चा होने दें ये शिक्षा माफिया।
पिछले कुछ दिनों से मीडिया में भी कई नेताओ यहाँ तक की शिक्षा मंत्री और मुख्यमंत्री के साथ भी बच्चा राय की तस्वीर दिखाई जा रही है। इनलोगों की बच्चा राय की कैसी पहचान है ये या तो वो लोग या बच्चा राय ही बता सकता है।
लेकिन जिसकी जांच हो और उसका सम्बन्ध सीधा या परोक्ष रूप से सरकार से है तब तो जनता का जाँच से भी विस्वाश न उठ जाये। क्योँकि जिनकी संस्थानों की जाँच की जाएगी उनमे से कुछ लोग तो सदन में बैठे हुए है या सदन के सदस्य रह चुके हैं।
अब तो लगता है की न वो उस ज़माने की हमें शिक्षा मिल पायी और कभी कभी ये भी लगता है की हमलोग ही बचे हैं, जिसके साथ बच्चा राय की तस्वीर नही है ।
इनसबके बीच बस आई आई टी का रिजल्ट ने बिहार को कुछ सुकून दिया।
आगे माँ सरस्वती ही मालिक है।