ANNI AMRITA क्लैपिंग भी वर्क एट होम

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ANNI AMRITA
एक कार्यक्रम में गई थी, बार बार क्लैपिंग करना पड़ रहा था. तालियां बजा बजाकर हाथ और मन दोनों थक गया था. बार बार मंच के संचालनकर्ता दर्शक दीर्घा की ओर उन्मुख होकर तालियां बजाने का निवेदन कर रहे थे. एक अरसे बाद एक छोटे से कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला था. कोरोना काल में सब घर में बंध कर रह गए हैं. इधर कोरोना से कुछ राहत मिली तो सोशल डिस्टेसिंग के साथ और मास्क की घेराबंधी में कार्यक्रम के दर्शन हुए.वर्क एट होम से जितनी ‘सो कॉल्ड फ्रीडम’ मिली उससे कहीं ज्यादा जकड़न मिली जहां वर्क कभी खत्म होता नज़र नहीं आता. लेकिन अब कंपनियों ने भी चालाकी अपनाते हुए वर्क फ्रॉम होम से फायदा देख लिया है और किसी भी सूरत में इसे जारी रखना चाहती हैं. लोग भी क्या करें, उनको भी आदत हो चली है. आदत ऐसी कि हर काम घर में कैसे बैठे बैठे हो जाए दिल दिमाग इसी जुगात में रहता है. दवा खरीदने से लेकर राशन के सामान से लेकर ऑनलाईन जूम मीटिंग से लेकर ऑनलाईन खरीदारी तक हर जगह ऑनलाईन का ही बोलबाला है.

हां तो मैं क्लैपिंग कर करके परेशान हो रही थी. अचानक दिमाग में आय़ा कि जब कार्यक्रम में आकर सिवाए क्लैंपिग के कुछ करना ही नहीं था तो फिर आने की भी क्या जरूरत थी.घर से ही क्लैंपिग भेज दिया जाता. सुनने में कुछ अजीब लग रहा होगा लेकिन मैनें देखा कि कार्यक्रम में सब बुत बने बैठे थे. कोई भाव नहीं, संचालनकर्ता के आग्रह पर बिना मन के कभी जोर कभी धीरे से क्लैंपिंग करते लोग. ऐसा लग रहा था वहां हो ही नहीं. कंबख्त वर्क एट होम ने मानो आत्मा ही खत्म कर दी हो.कार्यक्रम ऑनलाईन भी हो सकता था लेकिन एक अरसे से सबको मन भी था कि बिल्कुल मुखातिब होकर कार्यक्रम किया जाए.ऑनलाईन में वो मज़ा या वो ‘फील’ नहीं आता.मैं भी यही सोचकर आई कि चलो एकरसता हटेगी लेकिन ये क्या- यहां की बोरियत से तो मेरे मन में तरह तरह के आईडियाज़ घूमने लगे.पूरा परिदृश्य घूमने लगा जब लोग कार्यक्रम में महज ताली बजाने आएंगे ही नहीं बल्कि तालियां ऑनलाईन रहेंगी यानि हर दर्शक अपने अपने घर से ऑनलाईन तालियां भेजेगा. चूंकि ऑनलाईन सेमिनार/कार्यक्रम में तालियों का कॉन्सेप्ट अभी नहीं आया है क्योंकि वहां हर व्यक्ति अपने अपने स्थान से ऑनलाईन रहता है, ऐसे में ताली की सामूहिकता का अभाव रहता है. लेकिन जो मैं कथा बुन रही उसके पात्र अपने कार्यक्रम बकायदा कार्यक्रम स्थल पर ही करेंगे जहां चंद लोग उससे जुड़े होंगे, जैसे कवि, लेखक, वक्ता या कोई और. बस जब भी कोई भाषण होगा या शेर पढ़ा जाएगा या कविता पढ़ी जाएगी तालियां घर से ही दर्शक ऑनलाईन भेजा करेंगे.मैं ऑनलाईन क्लैंपिग के ख्यालों में खोई ही हुई थी कि मुझे एहसास ही नहीं हुआ कि मैं ताली मारे जा रही थी और कार्यक्रम समाप्त हो चुका था, धन्यवाद ज्ञापन भी हो चुका था, लोग अपनी सीट से उठकर जा रहे थे. मेरी ताली देखकर सब रूक गए . किसी ने मुझे डांटते हुए कहा—ऐ लड़की तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या?
मैनें आदतन मशहूर स्वतंत्रता सेनानी राम प्रसाद “बिस्मिल” के उसी शेर को ज़ोर से पढ़ डाला जो मैं अक्सर पढ़ती हूं—

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‘ इन्हीं बिगड़े दिमागों में भरे खुशियों के लच्छे हैं,
इन्हें बिगड़े ही रहने दो ये बिगड़े ही अच्छे हैं’
ये बिगड़े ही अच्छे हैं—ये बिगड़े ही अच्छे हैं

पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.तालियां बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी. कई लोगों ने आकर मुझे बधाई दी, मेरी हौसलाआफजाई करते हुए कहा कि मैंने ऐसा शेर सुना दिया जिसने जिंदगी में रंग भर दिया.लोग लगातार बधाई दे रहे थे और मेरी आंखों में खुशी के आंसू थे. ऑनलाईन ताली के कॉन्सेप्ट में खोई मुझ नादान को ऑफलाईन यानि सचमुच की ताली ने उत्साह औऱ खुशी से सराबोर कर दिया था. मुझे जवाब मिल गया था—ऑनलाईन ताली औऱ सचमुच की ताली में बहुत फर्क है. वर्क एट होम और वर्क एट वर्क प्लेस में बहुत फर्क है. ऑनलाईन और ऑफलाईन में बहुत फर्क है.ऑनलाईन काम हो सकता है लेकिन जिंदगी की खूशबू तो ऑफलाईन में ही है.

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