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धनबाद।
गर्भ के अंदर मौजूद कोयले और उसकी लेकर चल आ रही वर्चस्व की लड़ाई उतनी ही पुरानी है जितनी की खुद कोयला खदानें। इस को लेकर जारी माफिया गैंगवार उतनी ही तपीश है जितनी की कोयले की आग। इस लड़ाई में कई खिलाड़ी हैं। लेंकिन सबसे बड़ा हिस्सा पूर्व माफिया व कभी धनबाद के बेताज बादशाह कहे जाने वाले सूरज देव सिंह व उनके परिवार की है।
एक अनुमान के अनुसार कोयले में रंगदारी का कारोबार सलाना 2500 करोड़ रुपये के आस पास की है। इस कारोबार में धनबाद और बिहार से लेकर यूपी के वाराणसी, बलिया, कानपुर तक पसरा है। पैसे की अंधाधुंध बरसात करने वाले कोयले के इस कारोबार के साथ और नेतागीरी के धंधे की बादशाहत की चाहत ही माफियाओं के बीच चलनेवाले गैंगवार की मुख्य वजह है।
तीन राज्यों में खूनी जंग
धनबाद के माफिया राज के संबंध में एक प्रसिद्ध कहावत है कि यहां ABCD की हुुकुमत चलती है। A मतलब आरा, B मतलब बलिया, C मतलब छपरा और D मतलब धनबाद होता है। इन्हीं चार जिलों की यहां तूती बोलती है। इस माफिया वार में उत्तर प्रदेश व बिहार के बड़े क्रिमिनल गैंग्स भी शामिल रहे हैं। रह रह कर इनकी जंग की गूंज दिल्ली में सत्ता के गलियारों से लेकर पार्लियामेंट तक सुनाई पड़ती रहती है।
1967 से बढ़ी लड़ाई
कोयले की इस अवैध कमाई में वर्चस्व की लड़ाई यूं 1950 के दशक से ही शुरू हो गई थी, लेकिन माफियागीरी ने यहां दस्तक दी साठ के दशक में। 1967 से लेकर अब तक 35 के करीब बड़े कारोबारी, नेता और ठेकेदार माफियाओं की इस खूनी लड़ाई की भेंट चढ़ चुके हैं। नीरज सिंह की हत्या इसी कड़ी का एक हिस्सा है। हालांकि इस दौरान छोटे – मोटे कारोबारियों, मुंशियों, कामगारों और मामूली हैसियत वाले लोगों की हत्याओं की गिनती कर ली जाए, तो खूनी जंग की भेंट चढऩेवालों की तादाद सैकड़ों में होगी।
माफिया राज का आगाज
धनबाद में कोयला कारोबार पर कब्जा जमाने का सबसे बड़ा हथियार ट्रेड यूनियन को बनाया गया। 1960 के दशक में ट्रेड युनियन नेता बी पी सिन्हा ने यहां बिहार और यूपी के सीमावर्ती इलाकों से लठैतों और बाहुबलियों की एक फौज की मदद से यहां सबसे पहला सम्राज्य कायम किया था। दो दशकों तक इस क्षेत्र में उनका ही सिक्का चलता है।
सूरजदेव ने दी चुनौती
बीपी सिन्हा को चुनौती उनके ही शिष्य सूरज देव सिंह ने दी। 1970 के दशक के मध्य तक सूरजदेव ने झरिया कोल फिल्ड में उनके समानांनतर संगठन खड़ा कर लिया। बीपी सिन्हा का ताल्लुक कांग्रेस की ट्रेड यूनियन इंटक से थी। वहीं सूरजदेव ने जनता पार्टी का हाथा। 1977 में झरिया से विधायक बनने के बाद वे बीपी सिन्हा समकक्ष पहुंच गए। 1978 में बीपी सिन्हा की हत्या बाद सूरजदेव ने अपना एकछत्र राज्य कायम कर लिया।
टूटा परिवार
1991 में सूरजदेव सिंह की मौत के बाद से अपने भाइयों व बड़े बेटे ने उनका सम्राज्य का और विस्तार किया। इस बीच जो भी चुनौती के उभरे उन्हें रास्ते से हटा दिया गया। इस में सूरजदेव के छोटे भाई रामधीर सिंह व उनके बड़े बेटे राजीव रंजन सिंह के उपर नीरज सिंह के अपने मौसा संजय सिंह की हत्या का आरोप लगा। इस हत्या ने परिवार की एकता को तोड़ कर रख दिया।
बच्चा व राजन ने छोड़ा मैंशन
संजय सिंह की हत्या से आहत बच्चा सिंह व राजन सिंह अपने परिवार के साथ सिंह मैंशन छोड़ दिया। लेकिन इसके बाद भी परिवार व्यापारिक जरूरतों साथ में कारोबार करता रहा। इस बीच 2003 में यूपी के डॉन ब्रजेश सिंह के करीबी रिश्तेदार प्रमोद सिंह की हत्या हो गई। हत्या का आरोप एक बार रामधीर व राजीव रंजन पर लगा। इस के बाद दोनों भूमिगत हो गए। इसी फरारी के दौरान सूरजदेव के बड़े बेटे राजीव रंजन की हत्या ब्रजेश सिंह ने कर दी।
राजीव की मौत के बाद सिंह मैंशन में उत्तराधिकार की जंग तेज हो गई। सूरजदेव की विरासत संभाल उनके छोटे भाई बच्चा सिंह पर सूरजदेव के दूसरे बेटे संजीव सिंह ने बनानी शुरू कर दी। इसके फल स्वरूप 2004 की विधान सभा चुनाव में बच्चा सिंह ने झरिया विधान सभा सीट सूरजदेव की पत्नी व संजीव सिंह की मां कुंती देवी को सौंप दी।
लेकिन राजन सिंह के बेटों नीरज व मुकेश सिंह ने इसका पूरजोर विरोध किया। इसके बाद परिवार पूरी तरह टूट गया। बच्चा सिंह की अपनी कोई संतान नहीं है। इसलिए उन्होंने राजन सिंह के बेटों को अपना वारिस घोषित किया है। इसकी वजह है कि बच्चा सिंह व नीरज की मां अपनी बहन है। वहीं सूरजदेव की पत्नी कुंती सिंह व रामधीर की पत्नी इंदु सिंह अपनी बहन है। इस वजह से परिवार में महिलाओं के हित भी आपस में टकराने लगे।
एक दूसरे के सामने आया परिवार
2008 तक दोनों में तकरार चरम पर पहुंच गया। हालांकि तक नीरज सिंह राजनीतिक रूप से उतने सक्रिय नहीं थे। तब इनकी ओर से उऩके छोटे भाई मुकेश सिंह संजीव व रामधीर के लिए चुनौती बन गए थे। लेकिन 2009 में एक सड़क हदासे में मुकेश की मौत के बाद नीरज ने राजनीति में कदम रखा। अपने मृदूल स्वभाव के कारण वो देखते ही देखते धनबाद व झरिया में अपने समर्थकों का बड़ा ग्रुप तैयार कर लिया था।
2010 के धनबाद नगर निगम चुनाव में नीरज भारी मतों डिप्टी मेयर पद का चुनाव जीता था। इसके 2014 विधान सभा चुनाव में झरिया सीट से अपने चचरे भाई संंजीव को कड़ी चुनौती पेश की। संजीव भाजपा की टीकट पर चुनाव लड़ रहे थे। वहीं नीरज कांग्रेस की टिकट पर यह चुनाव लड़ रहे थे।
कोयला कारोबार में बने चुनौती
परिवार में अलगाव के कारण सूरज देव सिंह द्वारा खड़ा किया गया मजदूर संगठन जनता मजदूर संघ भी टूट गया। नीरज सिंह अपने संगठन हर उस जगह पर संजीव व रामधीर को चुनौती देने लगे जहां इनकी मजबूत पकड़ थी। कई जगहों पर दोनो पक्षों के समर्थकों के बीच हिंसक झड़प भी हो चुका था। इस नीरज सिंह के गुट के सामने संजीव का सबसे खास रंजय खड़ा होने लगा।
रंजय की हत्या
दो महीने पहले जनवरी में अचनाक एक शाम बिग बाजार के पास रंजय की हत्या हो गई। ह्त्यारों ने उसे भी घेर कर तब तक गोली मारी जब तक कि मौके पर ही ढेर नहीं हो गया। इसके बाद से ही किसी बड़े वारदात की आंशंका बनी हुई थी। इसी बीच नीरज सिंह की हत्या को इसी की परिणति उऩके समर्थकों व परिजनों द्वारा देखा जा रहा है।
जेल में रामधीर
पिछले महीने ही रामधीर ने विनोद सिंह हत्याकांड में धनबाद कोर्ट में सरेंडर किया था। इस मामले में उन्हें 2014 में उम्र कैद की सजा सुनाई गई थी। तब से वे फरार चल रहे थे। करीब 22 महीनों की फरारी के बाद जब वो पिछले महीने सरेंडर किया था। वहीं रामधीर सिंह के बेटे शशि सिंह, 2011 में हुए कोयला कारोबारी व कांग्रेस नेता सुरेश सिंह की हत्या के मामसे में मुख्य आरोपी है। अभी वे भी फरार है।
धनबाद माफियाओं के गैंग वार में हुई महत्वपूर्ण हत्याए :—-
(01) शफी खान
(02) अशगर
(03) अंजार
(04) शमीम खान
(05) सुलतान
(06) छोटे खान
(07) बी.पी.सिन्हा
(08) राजू यादव
(09) संजय सिंह
(10) विनोद सिंह
(11) नाजिर
(12) सकलदेव सिंह
(13) गुरदास चटर्जी
(14) सुशांतो शेन गुप्ता
(15) नजमा खातून
(16) प्रमोद सिंह
(17) गजेन्द्र सिंह
(18) सुरेश सिंह
(19) राजीव रंजन सिंह
(20) रंजय सिंह
(21) नीरज सिंह
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