बिहार में बदलाव पर भारी जातीय समीकरण

बीजेएनएन व्यूरों पटना,27 फरवरी
दिल्ली से लखनऊ का सफर रात के करीब 11 बजे खत्म हुआ। लखनऊ पहुंचकर पटना
निकलना था। रात में चार घंटे का इंतजार था। न सोने की जगह थी, न शहर
घूमने का वक्त था। इसलिए सोचा रेलवे स्टेशन पर ही लोगों से बात कर वक्त
काट लूं। देखा कि कुछ लोग चाय के साथ अखबार को पलटकर उसमें छपी खबर पर
बहस कर रहे थे। एक ने कहा कि इंदिरा गांधी के बाद मोदी ही सबसे दबंग नेता
बनकर सामने आए हैं। सीना ठोककर बोलते हैं। दूसरा इस दावे से प्रभावित
नहीं हुआ। उसने कहा कि भाषण से क्या होगा? इससे वोट नहीं बनता है। इस
चर्चा में राहुल के बारे में कहा गया कि वह बहुत डांटकर बात करते हैं और
अभी कच्चे खिलाड़ी हैं। केजरीवाल के बारे में वे कन्फ्यूज दिखे कि आखिर
वह कहना और करना क्या चाह रहे हैं, पता नहीं चलता। इनकी बातों को सुनते
एक घंटे से ज्यादा वक्त बीत गया। कुछ देर बार मेरी ट्रेन आ गई और चल पड़ा
पटना की ओर।

क्या बिहार में जाति ही एकमात्र फैक्टर है?
सुबह देर से उठा और देखा कि पूरी बोगी में नीतीश बनाम मोदी की बहस जोरों
पर है। एक शख्स ने कहा कि मोदी की हवा नहीं है। ऐसे कई हवाबाज नेता बिहार
आए और चले गए। दूसरे ने जवाब दिया, बिहार से नारा है- हर हर मोदी, घर घर
मोदी। तीसरे ने चुटकी ली, मोदी और नीतीश चाहें जितना जोर लगा लें, बिहार
में समोसे में आलू और राजनीति में लालू का विकल्प नहीं है। हर किसी के
पास अपने तर्क को जायज ठहराने के लिए राज्य की जातीय समीकरण का गणित ही
एकमात्र विकल्प था। तो क्या बिहार में जाति ही एकमात्र चुनावी फैक्टर है?
सहरसा के प्रफेसर सीताराम झा ने कहा, एकमात्र नहीं, लेकिन सबसे बड़ा
फैक्टर है। नेता विकास की बात जरूर करते हैं, पर चुनावी रणनीति को अंतिम
रूप देने के लिए हाथ में विकास का नहीं, जाति का पेपर होता है। उन्होंने
कहा कि मोदी भी यादव वोट को लुभाने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं। लालू
कमजोर हुए और वोट सरका तो समझिए कि 40 में 30 सीट पक्की। लेकिन खगड़िया
के शिवनाथ पटेल कहते हैं कि इस बार चुनाव में पहले से कुछ कहना ठीक नहीं
होगा। वोटर पूरा कन्फ्यूज है।

हर किसी से शिकायत है
आम लोगों से बात करने पर पता चलता है कि उनकी अपेक्षाओं पर कोई नेता अभी
तक खरा नहीं उतर पाया है। पटना के सरफराज कहते हैं कि नेता लोग जितना
टाइम भाषण देने में बिताते हैं, उसका आधा टाइम भी राशन देने में खर्च
करते तो देश की हालत कुछ और होती। किसी ने कहा कि हमारे नेता पहले हाथ
जोड़ते हैं और बाद में हाथ दिखाते हैं। झारखंड के राजमहल निवासी तुलसी
महतो बताते हैं कि चुनाव से पहले किस तरह उनके घर नेता हाथ जोड़कर वोट
मांगने आए थे और चुनाव जीतने के बाद जब एक दिन उनसे मिलने गए तो उनके
गार्ड ने बुरी तरह पीटा।

दंगे का दर्द इधर भी
बहस के दौरान गुजरात दंगे का मुद्दा उठा। कैलाश राम ने कहा कि एक सीएम जब
दंगा नहीं रोक सकता, सबको साथ लेकर नहीं चल सकता तो फिर वह कैसा नेता।
उन्हें काटते हुए भागलपुर के गणेश प्रियदर्शी ने कहा कि बिहार ने 1989
भागलपुर दंगे के रूप में देश का सबसे भयानक दंगा देखा। अगर उसे दंगे के
बाद यहां राजनीति को माफी मिल सकती है, लोगों को न्याय नहीं मिलता है तो
दूसरों के बारे में बात करना गलत है।

क्या हैं संकेत?
लखनऊ से पूर्वांचल और बिहार की ओर निकलने और लोगों से बात करने पर पता
चलता है कि मोदी मुख्य बहस में हैं। लेकिन मोदी भले ही विकास और दूसरे
मुद्दों पर चुनाव लड़ने का दावा करें, बिहार में जातीय समीकरण ही अहम
होगा। इस बार बीजेपी के पक्ष में जातीय समीकरण बनते दिख रहे हैं। लेकिन
चुनाव में पार्टी कैसे उम्मीदवार उतारती है, इस पर भी काफी कुछ निर्भर
करेगा। अपने जादुई जातीय समीकरण माई (मुस्लिम और यादव) के जरिए वोट
बटोरने की लालू यादव की कोशिश कामयाब होती नहीं दिख रही है। नीतीश कुमार
अपना सबसे कठिन चुनाव लड़ने वाले हैं और राज्य में कांग्रेस की कोई चर्चा
नहीं करता है।

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