*विजय सिंह .
२०१४ में जब करिश्माई रूप से राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर नरेंद्र मोदी का उदय हुआ था ,तब देश के १४ वें प्रधानमंत्री का पद सँभालने वाले गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वाराणसी के सांसद नरेंद्र दामोदरदास मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में जादुई व्यक्तित्व के साथ प्रशांत किशोर नामक “राजनीतिक पंडित एवं चुनाव प्रबंधक” की हैसियत से राष्ट्रीय राजनीति में महत्व बढ़ता दिखा.२०१४ के भाजपा की अप्रत्याशित सफलता को प्रशांत किशोर ने पूरी तरह से अपने खाते में डालने की कोशिश की लेकिन केंद्र में सरकार बनते ही और अमित शाह के भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद सँभालते ही शाह ने प्रशांत किशोर की “बढ़ती महत्वाकांक्षा” को भांपते हुए भाजपा से किनारा कर दिया. जानकर बताते हैं कि लोकसभा चुनाव में प्रशांत किशोर की रणनीति तत्कालीन समयानुसार सही रही हो परंतु तत्कालीन कांग्रेस सरकार से “ऊब” चुकी जनता को नरेंद्र मोदी में एक नयी उम्मीद दिखी और स्वयं मोदी के राजनीतिक अनुभव,रणनीति,कार्य करने की क्षमता और सभाओं में जनता को शब्दों से बांधे रखने की क्षमता ने उन्हें प्रधानमंत्री पद और भाजपा को बम्पर जीत दिलाई.
भाजपा के बाद प्रशांत किशोर ने बिहार का रुख किया और २०१५ में नीतिश कुमार के चुनाव प्रबंधक बन गए. बिहार में नीतिश कुमार की लोकप्रियता,गठबंधन और भाजपा की सुस्ती ने नीतिश को मुख्यमंत्री पद पर बिठाया पर साथ में सन्देश यह भी गया कि प्रशांत किशोर जिस पार्टी का चुनाव प्रबंधन करते हैं ,जीत उसका वरण करती है.
उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस के मुख्य चुनावी रणनीतिकार की भूमिका प्रशांत किशोर को सौंपने में इसी भ्रम ने राहुल गाँधी को भी लुभाया और जानकारी के अनुसार पार्टी के तमाम वरीय नेताओं के विचारों को दरकिनार करते हुए राहुल गाँधी ने प्रशांत की सलाह को प्रमुखता दी.पर मेरी समझ से प्रशांत किशोर रणनीति बनाते समय “विपक्ष” की हैसियत,भौगोलिक व सामाजिक वातावरण,जमीनी संवाद ,व्यक्तिगत पृष्ठभूमि,नीति,व्यक्तित्व प्रबंधन,नए इवेंट का चयन करना चूक गए.प्रशांत किशोर भूल गए कि लड़ाई भाजपा से ज्यादा नरेंद्र मोदी से है,प्रधानमंत्री के साथ वे उत्तर प्रदेश से ही सांसद भी हैं.उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है,जीतने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे.
लोकसभा चुनाव के समय नरेंद्र मोदी के “चाय पे चर्चा “के समरूप उत्तर प्रदेश में “खाट पर चर्चा ” बेअसर रही. जहाँ चाय ने लोगों को आकर्षित किया वहीं उत्तर प्रदेश में लोगों ने चर्चा की बजाय खाट ले जाने में ज्यादा दिलचस्पी ली.नतीजा सामने है.वैचारिक रूप से लोगों को जोड़ने की कवायद असफल रही.कांग्रेस का सपा के साथ गठबंधन ,रैली और राहुल गाँधी के भाषणों ,टिकट बंटवारा में भी प्रशांत किशोर की भूमिका और दखलंदाजी से कांग्रेस के कद्दावर नेता अंदर ही अंदर नाराज रहे.सूत्रों के अनुसार उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजब्बर भी असहज रहे.
सबसे बड़ी बात जो प्रशांत किशोर चाहते थे ,वह थी उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव से प्रियंका गाँधी की राजनीति में सीधे प्रवेश. प्रशांत इस विषय पर पूरी तरह विफल रहे.प्रशांत किशोर गाँधी परिवार की हैसियत का अंदाजा लगाने में नासमझी कर गए.प्रशांत किशोर यह भूल गए कि यदि किसी मैनेजर के कहने से ही प्रियंका गाँधी को राजनीति में प्रवेश करनी होती ,तो राहुल गाँधी मनमोहन सिंह की सरकार में कबके मंत्री बन चुके होते.राहुल गाँधी के अतिरिक्त प्रियंका गाँधी और सोनिया गाँधी ने प्रशांत किशोर को कभी महत्व नहीं दिया,सूत्र दावा करते हैं. रणनीति बनाते वक्त यह ध्यान नहीं रखा कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद १० जनपथ आज भी देश के सबसे ताकतवर राजनीतिक परिवारों में एक है.उनकी स्वयं की रणनीति और सोच है ,जिसका आंकलन प्रशांत किशोर नहीं कर पाए.जिस प्रदेश से देश की दो बड़ी पार्टियों के दिग्गज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (वाराणसी) और सोनिया गाँधी (रायबरेली) से सांसद हैं ,वहां “जी हुजूरी” की राजनीति ने कांग्रेस को २८ के बदले ७ सीटों में समेट दिया.
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