कोडरमा-स्त्रियों को भी श्राद्ध का अधिकार है

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कुंतलेश पाण्डेय।

किसी भी मृतक के ‘अन्तिम संस्कार’ और श्राद्धकर्म की व्यवस्था के लिए प्राचीन वैदिक ग्रन्थ ‘गरुड़पुराण’ में कौन-कौन से सदस्य पुत्र के नहीं होने पर श्राद्ध कर सकते है, उसका उल्लेख अध्याय ग्यारह के श्लोक सख्या- 11, 12, 13 और 14 में विस्तार से किया गया है। जैसे –

पुत्राभावे वधू कुर्यात् भार्याभावे च सोदनः।
शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत्॥
ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृःपुत्रश्चः पौत्रके।
श्राध्यामात्रदिकं कार्य पुत्रहीनेतखगः॥

( गरुड़पुराण 11/11-12)

अर्थात “ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू, पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई अथवा भतीजा, भानजा, नाती, पोता आदि कोई भी यह कर सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुल पुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्ध व तर्पण और तिलांजली देकर मोक्ष कामना कर सकती है।

सीता द्वारा पिण्डदान

वाल्मीकि रामायण’ में सीता द्वारा पिण्डदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुँचे। वहाँ श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराह्न में तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की माँग कर दी। गया के फल्गु नदी पर अकेली सीताजी असमंजस में पड गई। उन्होंने फल्गू नदी के साथ वट वृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया।

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