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Home » मधेपूरा-क्या है अनंत चतुदर्शी और क्यों मनाते हैं
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मधेपूरा-क्या है अनंत चतुदर्शी और क्यों मनाते हैं

BJNN DeskBy BJNN DeskSeptember 15, 2016No Comments7 Mins Read
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SANJAY KUMAR SUMAN
………………………….
संजय कुमार सुमन
भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी के नाम से भी जाना जाता है और इस दिन अनंत के रूप में श्री हरि विष्‍णु की पूजा होती है तथा रक्षाबंधन की राखी के समान ही एक अनंत राखी होती है, जो रूई या रेशम के कुंकुम से रंगे धागे होते हैं और उनमें चौदह गांठे होती हैं। ये 14 गांठें, 14 लोक को निरूपित करते हैं इसे अनंत का डोरा भी कहते है और इस धागे को वे लोग अपने हाथ में बांधते हैं, जो इस दिन यानी अनंत चतुदर्शी का व्रत करते हैं। पुरुष इस अनंत धागे को अपने दाएं हाथ में बांधते हैं तथा स्त्रियां इसे अपने बाएं हाथ में धारण करती हैं।
अनंत चतुर्दशी का व्रत एक व्यक्तिगत पूजा है, जिसका कोई सामाजिक धार्मिक उत्सव नहीं होता, लेकिन अनन्‍त चतुर्दशी के दिन ही गणपति-विसर्जन का धार्मिक समारोह जरूर होता है जो कि लगातार 10 दिन के गणेश-उत्‍सव का समापन दिवस होता है और इस दिन भगवान गणपति की उस प्रतिमा को किसी बहते जल वाली नदी, तालाब या समुद्र में विसर्जित किया जाता है, जिसे गणेश चतुर्थी को स्‍थापित किया गया होता है और गणपति उत्‍सव के इस अन्तिम दिन को महाराष्‍ट्र में एक बहुत ही बडे उत्‍सव की तरह मनाया जाता है।
अनंत चतुर्दशी को भगवान विष्णु का दिन माना जाता है और ऐसी मान्‍यता भी है कि इस दिन व्रत करने वाला व्रती यदि विष्णु सहस्त्र नाम स्त्रोत्र का पाठ भी करे, तो उसकी वांछित मनोकामना की पूर्ति जरूर होती है और भगवान श्री हरि विष्‍णु उस प्रार्थना करने वाले व्रती पर प्रसन्‍न होकर उसे सुख, संपदा, धन-धान्य, यश-वैभव, लक्ष्मी, पुत्र आदि सभी प्रकार के सुख प्रदान करते हैं।
अनंत चतुर्दशी व्रत सामान्‍यत: नदी-तट पर किया जाना चाहिए और श्री हरि विष्‍णु की लोककथाएं सुननी चाहिए, लेकिन यदि ऐसा संभव न हो, तो उस स्थिति में घर पर स्थापित मंदिर के समक्ष भी श्री हरि विष्‍णु के सहस्‍त्रनामों का पाठ किया जा सकता है तथा श्री हरि विष्‍णु की लोक कथाऐं सुनी जा सकती हैं।
अनंत चतुर्दशी पर सामान्‍यत: भगवान कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर से कही गई कौण्डिल्य एवं उसकी स्त्री शीला की कथा भी सुनाई जाती है, जिसके अन्‍तर्गत भगवान कृष्ण का कथन है कि ‘अनंत‘ उनके रूपों में से ही एक रूप है जो कि काल यानी समय का प्रतीक है। इस व्रत के संदर्भ में ये भी कहा जाता है कि यदि कोई व्‍यक्ति इस व्रत को लगातार 14 वर्षों तक नियम से करे, तो उसे विष्णु लोक की प्राप्ति होती है। भगवान सत्यनारायण के समान ही अनंत देव भी भगवान विष्णु का ही एक नाम है और इसी कारण अक्‍सर इस दिन सत्यनारायण का व्रत और कथा का आयोजन भी किया जाता है तथा सत्‍यनारायण की कथा के साथ ही अनंत देव की कथा भी सुनी-सुनाई जाती है।
अनंत चतुर्दशी के व्रत का उल्‍लेख भगवान कृष्‍ण द्वारा महाभारत नाम के पवित्र धार्मिक ग्रंथ में किया गया है, जिसके सबसे पहले इस व्रत को पांडवों ने भगवान कृष्‍ण के कहे अनुसार विधि का पालन करते हुए किया था।
घटना ये हुई थी कि एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय के वास्‍तुविज्ञ जो यज्ञ मंडप निर्माण करते थे, वह बहुत ही सुंदर होने के साथ-साथ अद्भुत भी था। महाराज युधिष्ठिर के लिए वास्‍तुविज्ञों ने जो यज्ञ मंडप बनाया था वह इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। यानी जल में स्थल तथा स्थल में जल की भ्रांति होती थी। सरल शब्‍दों में कहें तो जल में देखने पर ऐसा लगता था, मानों वह स्‍थल है और स्‍थल को देखने पर ऐसा लगता था, मानो वह जल है और पर्याप्‍त सावधानी रखने के बावजूद भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे।
एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गए और एक जल से भरे तालाब को स्थल समझकर उसमें गिर गए। संयोग से द्रौपदी वहीं थीं और दुर्योधन को इस जल-थल के भ्रम का शिकार होकर तालाब में गिरते देख उन्‍हें हंसी आ गई तथा उन्‍होंने ‘अंधों की संतान अंधी‘ कह कर दुर्योधन का मजाक उडाया, क्‍योंकि दुर्योधन के पिता धृतराष्‍ट्र स्‍वयं जन्‍म के अन्‍धे थे।
दुर्योधन, द्रोपदी के इस ताने भरे उपहास से बहुत नाराज हो गया। यह बात उसके हृदय में बाण के समान चुभने लगी और अपने इस उपहास का बदला उसने पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर लिया।
पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ा जहां पांडव अनेक प्रकार के कष्ट सहते हुए काफी कष्‍टपूर्ण जीवन जी रहे थे। एक दिन भगवान कृष्ण जब उनसे मिलने आए, तो युधिष्ठिर ने उनसे अपने कष्‍टपूर्ण जीवने के बारे में बताया और अपने दु:खों से छुटकारा पाने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने ऊपाय के रूप में उन्‍हें कहा-
‘हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।’
जब युधिष्ठिर ने इस अनंत चतुर्दशी पर किए जाने वाले अनंत भगवान के व्रत का महात्‍मय पूछा, तो इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने उन्हें एक कथा सुनाई जो कि अनंत चतुर्दशी का व्रत करने वाले सभी व्र‍ती को सुनना-सुनाना होता है। ये कथा निम्‍नानुसार है-
प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था जिसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी, जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सौतेली माता कर्कशा, सुमंत की पुत्री शीला को पसन्‍द नहीं करती थी और उसे तरह-तरह की तकलीफें दिया करती थी। धीरे-धीरे समय बीता और सुमंत ने अपनी पुत्री सुशीला का विवाह ब्राह्मण कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया, जो कि काफी धन-सम्‍पत्तिवान ब्राम्‍हण थे, जिनके पास भौतिक सुख व वैभव की कोई कमी नहीं थी। लेकिन दहेज प्रथा के अनुसार जब विदाई के समय बेटी-दामाद को कुछ देने की बात आई तो सौतेली मां कर्कशा ने अपने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांध कर दे दिए।
कौंडिन्य ऋषि सौतेली माता के इस दुखी हुए लेकिन बिना कुछ कहे अपनी पत्नी शीला को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए परंतु रास्ते में ही रात हो गई, इसलिए वे एक नदी तट पर रूक कर संध्या पाठ करने लगे।
सुशीला ने देखा कि उसी नदी के तट पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बताई। उस महत्‍ता को सुन सुशीला भी प्रभावित हुर्इ और उसने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया तथा चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई क्‍योंकि व्रत धारण करने वाले को अनंत डोरा अपने हाथ में बांधना जरूरी होता है।
कौंडिन्य ने सुशीला के हाथ में बंधे डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी, लेकिन कौंडिन्‍य को लगा कि सुशीला कोई ऐसा डाेरा बांध कर उसे अपने वश में करना चाहती है, इसलिए उन्होंने उस अनंत डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनंत जी का अपमान हुआ। परिणामत: धीरे-धीरे ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई व वे पूरी तरह से दरिद्र हो गए। अंत में उन्‍होंने अपनी पत्नी से अपनी सम्‍पत्ति के नष्‍ट हो जाने का कारण पूछा तो सुशीला ने उन्‍हें अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं।
भगवान अनंत के किए गए अपमान का पश्चाताप करने के लिए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति हेतु वन में चले गए और कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनंत भगवान प्रकट होकर बोले-
‘हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्षपर्यंत व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे।’
कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का 14 वर्षों तक विधिपूर्वक व्रत किया, जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे और इस प्रकार से अनंत चतुर्दशी का व्रत प्रचलन में आया।

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