ANNI AMRITA
कहते हैं बदलाव प्रकृति का नियम हैं. यह सच भी है, क्योंकि बदलाव हमें नजर आता है. कुछ बदलाव सुखद लगते हैं, तो कुछ बदलाव न सिर्फ डराते हैं, बल्कि आनेवाले समय की आहट भी देते हैं. हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी छठ के घाटों पर बालू का घर बनाते बच्चे दिखे. फर्क यही था कि हमारे बचपन के दिनों में छठ के घाट के साथ ही मुहल्ले के प्रांगण और आस-पास या गांवों में मौजूद मिट्टी और बालू के बीच शहरी बच्चे भी खेल-खेल में घर बनाते नजर आते थे. हम भी ऐसा करते थे. यह हमारा रुटीन खेल था. हमने ऐसा बचपन स्वभाविक रुप से बेतकल्लुफ होकर बिताया है. आज घर-घर में एक तो बच्चे कम हैं, ज्यादातर एकल परिवारों में बच्चे भी इकलौते हैं, साथ ही उनके पास खेलने के लिए कोई भाई-बहन या साथी नहीं, बल्कि मोबाइल है. मोबाइल से थककर फिर अपने माता-पिता खासकर मां को परेशान करते हैं. मां भी क्या करे, बाहर कहीं खेलने के लिए भेजे, तो सुरक्षा का मुद्दा है. कंक्रीट के घने जंगल बढते जा रहे हैं. अपार्टमेंट कल्चर ने मुहल्लों की संस्कृति खत्म कर दी है. बच्चों में चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है. लोग कहते हैं कि आजकल के बच्चे बहुत बदमाश हो रहे हैं, लेकिन गहराई में जाओ तो उनका बचपन खुलकर जी नहीं पा रहा..
ऐसे दौर में छठ महापर्व उन्हें नदी घाटों के करीब लाता है, जहां वे तल्लीनता से बालू पर घर बनाते हैं.आम तौर पर मां-बाप को तंग करते बच्चे यहां आकर खुद में मस्त हो जाते हैं. कितने घर बनाकर फिर उसे गिरा देते हैं, फिर घर बनाते हैं.. हालांकि यहां भी अभिभावक बेचैनी में दिखते हैं, क्योंकि घर लौटना है, तो वे बच्चों को जल्दी-जल्दी खेल खत्म करने के लिए कहते हैं. ऐसा ही दृश्य आदित्यपुर में खरकई नदी के घाट पर दिखा. चारों तरफ बालू के घर बनाते बच्चों ने मुझे अपने बचपन की याद दिला दी. एक बच्चे ने कहा कि उन्हें ऐसा मौका नहीं मिलता है, जबकि उन्हें बालू के घर बनाकर खेलने में मजा आता है. एक महिला से मुलाकात हुई, जिसने बताया कि वह अपने बच्चे की बदमाशियों से तंग आ गई थी, लेकिन जब वह अपने पड़ोसियों के साथ छठ घाट पर आई और यहां बालू के बीच बच्चे को छोड़ा तो बच्चा न सिर्फ खुश हुआ, बल्कि उसने एक बार भी मां को तंग नहीं किया. वह तल्लीन होकर बालू के घर बनाता रहा. पास ही बालू का घर बना रहे अन्य बच्चों के साथ बात करता रहा. सभी बच्चों में एक अघोषित प्रतिद्वंद्विता मची थी कि कौन सबसे अच्छा घर बनाता है. किसी बच्चे ने अपने अपने माता-पिता को परेशान नहीं किया. आपस में घर बनाने का खेल खेलते रहे..
माता -पिता भी क्या करें, छठ के अलावा ये लोग नदी किनारे अपने बच्चों को कैसे छोड़ें? बनारस तो है नहीं कि सुंदर से घाट बने हों, आबादी हो, भवनें वगैरह हों. नदी किनारे कितना सुरक्षित वातावरण है, यह किसी से छुपा तो नहीं है. मुझे क्या बताने की आवश्यकता है? आजकल नशेड़ियों का तो अड्डा ही नदी किनारे जमता है. बालू माफियाओं का अलग खेल…ये सब न भी हो तो नदी में डूबने का भी खतरा रहता है. नदियों के किनारे ऐसी कोई सरकारी पहल भी नहीं हुई है, जिससे वहां सुरक्षित माहौल मिले. ऐसे में नदी के किनारे बच्चों का खेल कैसे संभव है?
बचपन को जीने में ये जो बदलाव आया है, वह खतरनाक संकेत है कि आनेवाले समय में बचपन और भी जटिल होता जाएगा. शायद तब ‘बालू पार्क’ बनाने पड़ें. आखिर बच्चों के मन का ख्याल तो रखना पड़ेगा..बच्चे हर समय झूला ही नहीं झूला चाहते, उन्हें बहुत कुछ करना होता है. बालू में लोटना होता है, बालू का घर बनाना होता है….कंक्रीट के जंगल, बचपन को बाधित कर रहे हैं..एक बच्चे ने कहा–उसका शहर के पार्कों में बिल्कुल मन नहीं लगता है..उसे नदी किनारे रेत पर घरौंदा बनाना या रेत पर क्रिकेट खेलना अच्छा लगता है.

